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आचार्य श्री तुलसी
आचार्यश्री की अन्तर आत्मा ने लोगों को इतना खींचा कि सब पिछली काली पंक्तियोंको भूलकर एकमेक हो गये । चारो ओर 'खमत-खामणा' की ध्वनि गूँज उठी । समाजके शिरकी वह अशुक्ल रेखा सदाके लिए मिट गई । वह आश्विन शुक्ला १३ का दिन था। वह कलह चूरूसे ही उठा था और उसकी अन्त्येष्टि भी वहीं हुई, यह एक स्मरणीय बात है ।
आचार्यश्रीका जीवन आध्यात्मिक तथ्योंके परीक्षणकी एक विशाल प्रयोगशाला है । बोल-चाल, रहन-सहन, वात-व्यवहार, खान-पान आदि संयमका अनुत्तर विकास कैसे आध्यत्मिक किया जाय ? यह प्रश्न आपके मनकी परिधि प्रयोग का मोह छोड़ता नहीं । अपनी वृत्तियोसे दूसरो को कष्ट न हो, इतना ही नहीं किन्तु अपने आप में भी इन्द्रियाँ और मन अधिक समाधिवान् रहें, इसी भावना से आपका चिन्तन और उसके फलित प्रयोग चलते ही रहते है । यो तो आपने समूचे गणको ही प्रयोग-केन्द्र बना रक्खा है |
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गणकी व्यवस्था करनेमे प्रायश्चित्त और प्रोत्साहन ये साधन उपयोग में आते है । गलती करनेवालेको उलाहना कम या अधिक, सूखे शब्दोंमे या मृदु शब्दों में, एकान्तमे या सबके सामने कैसे दियाजावे -- इन विकल्पों का आप एक-एक गण - सदस्यपर प्रयोग करके देखते है । जिस प्रयोगका जिसपर स्थायी असर होता है, अपनी भूलोंसे छुट्टी पाने की शक्ति पाता है, उसकी विशुद्धिमे उसी का प्रयोग होता है । तपस्या, उपवास आदि प्रायश्चित्त के विविध
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