Book Title: Acharya Shree Tulsi
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 207
________________ स्फूट प्रसंग १८३ पाठक जानते है कि संस्कृत - व्याकरण नये छात्रोंके लिए अति रूखा विषय है। कालुगणीके शब्दमे 'अलूणी शिला' चाटना है । किन्तु नीरसमे रस भरनेकी कला आचार्यश्रीका नैसर्गिक गुण है। साधनिकाके साथ साथ नित नए मनोविनोद चलते रहते। जिससे मिठासके कलेवरमे कडवी घट भी अरुचिकर नहीं होती। इस प्रसगमे आचार्यश्रीने विद्यार्थी साधुओं का उत्साह बढानेको तत्काल १३ श्लोक रचे, वे बड़े स्फूर्तिदायक हैं । मनोविनोदके साथ प्रेरणा से भरेपूरे है । यथा: गुप्तिव्योमा भ्रनेत्राब्दे, मासे फाल्गुननामके । प्रारब्धा रत्ननगरे, भूतेष्टया दलेऽसिते ||१|| निशायां कालकोमुद्या, जायते साधुसाधन। | तुलसीगणिन पार्श्वे, रामदुर्गे पुरेऽधुना ॥ २ ॥ नवानाञ्चापि शिष्याणा क्रियते नामकीर्तनम् । येनोत्साहो विवर्द्धत, वाळाना पठने ध्रुवम् ||३|| फन्हैयालाल एकस्तु, शुभकर्णः शुभेच्छुक | स्मेरानन सुमेरश्च, मोहनो मुदिताशय ॥४॥ ताराचन्द्रस्तु तूष्णीको, मागीलालोऽल्पलालस | गुणमुक्तादनो हस, सुखलाल सुखाभिक ||५|| रूपोऽन्वेष्टा स्वरूपस्य सर्वे सम्मिलिता नव । प्राप्तु विद्योदघेरन्त, ग्रावुवुञ्जते सदा ||६|| ज्येष्ठभ्राता सुविश्वम्पो, बालाना पादहेतवे । प्रयत्न कुरुते नित्य, शिक्षाञ्चापयतीप्सिताम् ॥७॥ "

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