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माचार्य श्री तुलसी का उपयोग समझना बाकी नहीं रहेगा।
भूतवादने मनुष्यको शान्तिकी रट लगानेमे पागल बना रक्खा है। शान्तिके लिए वह युद्धकी चक्कीमे पिसता जा रहा है। युद्धसे मेरा तात्पर्य, दो शत्रु देशोंके बीच होनेवाले युद्धसे नहीं, जीवनव्यापी दैनिक युद्धसे है । एक देश, एक समाज और परिवारके व्यक्ति भी परस्पर गिद्धष्टि लगाये बैठे है। एक दुसरेका शोपण
और प्रताडन कर रहे है । यह सबसे खतरनाक युद्ध है। वडे युद्ध की आदत इसीसे पडती है । खेद । राष्ट्रवादकी चहारदीवारीमे पलनेवाले बड़े-बड़े दिमाग इस ओर नहीं मुडे। सुडनेकी बात ही फ्या, दिशा-यन्त्रकी सुई दूसरी ओर घूम रही है । आत्म-शोधनका लक्ष्य नहीं, सिर्फ शासन-सूत्रको ठीक ढंगसे चलाने के लिए चरित्र वल चाहिए । अपने बचावके लिए अहिंसा तथा शोपणका जुआ दूर फेकने के लिए अपरिग्रह भी वडा मीठा लगता है। दूसरो पर आक्रमण और शोपण करते समय वे याद तक नहीं आते। यही भूतवाद और अध्यात्मवादमे मौलिक भेद हे ।
अध्यात्मवादमे वे--अहिंसा और अपरिग्रह आत्मौपम्यकी भूमिका पर अवस्थित है। दूसरोके हित-अहितको अपने हित अहितसे तोलना जहाँ अध्यात्मवादकी सूझ है, वहा अपने हितो की रक्षाके लिए अहिंसा, अपरिग्रह और विश्वशान्तिकी बात करना दसराक हितको कुचलते समय उन्हे भूल जाना, यह भूतवादकी देन है।
आचार्यश्री तुलसी अपनी सत्प्रेरणाओं द्वारा मनुष्य समाजको