Book Title: Acharya Shree Tulsi
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 181
________________ १५७ शिष्य-सम्पदा . दशामें हमारी कैसे पट सकती है ? आचार्यवरने विस्मय और खिन्नताके शब्दोंमे कहा-यह कबसे ? उत्तरमे कहा-माघसेदो ढाई महीनोंसे। आचार्यश्रीने कहा-पहले तूने क्यों नहीं कहा ? उसने प्रार्थना की-मैंने आचार्यश्रीसे पूछा था- "शंका सहित साधुपनमे रहना चाहिए या नहीं" इसका तात्पर्य यही था। "यदि तू मेरी बातें कहीं कह देगा तो मैं अनशन कर दूंगा”कन्हैयालालजी स्वामीने मुझे यों कई बार कहा, इसलिए मैं स्पष्ट रूपमे कुछ भी कहनेमे संकोच करता रहा। मैने सोचा कि मैं उनको समझा लू गा। किन्तु मेरी चेष्टाएं विफल रहीं। मैं कई चार आपका उलाहना सह चुका, फिर भी मैंने कुछ भी कहना नहीं चाहा, सिर्फ इसलिए कि मेरे संसारपक्षीय पिता ज्यों-त्यो पुनः सुदृढ़ हो जाएं। आचार्यवरने मुनि कनकको आश्वासना दो और उसे संयम-प्रवृत्तिमे पूर्ववत् सजग रहनेकी शिक्षा दी । कन्हैयालालजीको इस बातका पता चला, तब वे अधीर हो उठे। अपनी दुष्प्रवृत्तिको छिपाने के लिए कई कुचेष्टाए की और मुनि कनककी ओरसे सर्वथा निराश होकर गगसे पृथक हो गये। __आचार्यवरने कनकसे कहा-तेरा पिता साधु-संस्थासे पृथक् हो गया है। तेरी क्या इन्छा हे ? यहा तो मर्यादापूर्वक चलना होगा, साधु-जीवनकी कठिनाइया सहनी होगी। उलाहने सहने ोगे। तेरा पिता तुझे ले जाना चाहता है........ ...... । आचार्यवरके ये शब्द सुन चाल-मुनि त्वरासे बोलागुरदेव । आत्म-साधना पधम पिता-पुत्रका सन्न्ध मा ?

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