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आचार्य श्री तुलमी
आप मेरे धर्मपिता है । मैं साधुत्रत कभी भंग नही करूंगा । मैं आपके अनुशासनमे प्रसन्न हू । मैं निरन्तर आपके निर्देशानुसार आत्म-साधना मे अग्रसर होऊ, यही एकमात्र मेरी मनोभावना है गुरुदेव । कठिनाइयां । दीक्षा यह सोच-विचारकर ही ली थी कि साधु-जीवन कठिनाइयों का घर है, मैं उनका हंसहँसकर सामना करूँगा, उन्हे चीरकर आगे बढूगा । उलाहना । त्रुटि हुए विना आप उलाहना देंगे नहीं, मेरी त्रुटिपर मुझे उलाहना मिले, उसमें मैं खिन्न क्यों होऊँ । उसे मैं मेरो त्रुटिका प्रायश्चित्त समझूंगा। गुरुदेव । आप मुझपर वात्सल्य रक्खे और शीघ्रातिशीघ्र में उन्नति करू', ऐसा मार्ग-दर्शन करें ।
बालकककी विवेकपूर्ण बातोंने अपने प्रति आचार्यश्री के हृदय में एक आकर्षण पैदा कर दिया। नियमित अध्ययन प्रारम्भ होगया । उसके विनय और सौम्य भावनाओंसे आकृष्ट न होता, उसे देख उसकी प्रवृत्तियों को देख, उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना न करता, ऐसा कौन था ?
अवश्यम्भावी भावकी सत्ता बलवती होती है - यकायक बाल-मुनिको ज्वर आया । किसने जाना कि यह चिरसमाधिका अग्रदूत है । वह सामान्य ज्वर 'भाव' ( मियादी ज्वर ) के रूप मे बदल गया । कफका प्रकोप बढ़ गया। बालजीवन, साधुजीवनकी कठिनाइयाँ, व्याधिकी भीपणता, फिर भी वह मृदुमुस्कान अखण्ड रही, हॅसते हॅसते कष्टोंको भेला ! नहीं सुना कभी किसीने उसके मुँहसे ओह ! हाय ! चू तक । वह अवस्था