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सत्य-निष्ठा
१७१ अथवा चीटीके प्राण वचे, वह दया है ? यदि कोई कहे कि चींटी का वचना दया है, तो कल्पना कीजिए उस समय तूफान (आधी) आ गया, चींटी उड़ गई अथवा उसी समय वह चींटी किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कुचल दी गई, तो क्या उसकी दया नष्ट हो गई ? गम्भीरतासे सोचने और मनन करनेका विषय है, वास्तव मे उसने अपने आप पर दया की।" प्रोफेसर-यह वस्तुतः बडा मौलिक और तात्त्विक सिद्धान्त है।
अवतक हम यही सुनते, समझते और पढते आये हैं-'स्वयं जीओ और जीने दो,' किन्तु आज आपसे यह समझकर प्रसन्नता हुई कि वास्तविक दृष्टि कुछ और है। जीने, जीने देने और जिलानेका क्या महत्त्व है, वास्तविक महत्त्व तो उठने तथा उठानेका ही है, तथा इसी प्रकार तत्त्वतः दया अपनेआपके प्रति ही
होती है। आचार्यश्री-धार्मिक जगत्मे लोगोंने 'दान' का वडा दुरुपयोग
किया। जिस किसीको दे देना ही दान है-धर्मपुण्यका हेतु है, यह धारणा धार्मिक जगत्मे बद्धमुल हो गई। किन्तु जैन-विचारधारा इसके प्रतिकूल है। आचार्य भिक्षुने वताया है-दानके सच्चे अधिकारी सन्यासी-संयमी साधु हैं, जो आत्म-साधनाके महान् लक्ष्यको पूरा करनेमे लगे रहते है, जो पचनपाचन तथा उत्पादन अदिसे निरपेक्ष और नि संग