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मधुर सवाद
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आचार्यवरकी आज्ञा शिरोधार्य की । रातका आदेश ( पहर रात आनेके बाद सोनेकी जो आज्ञा होती है ) हुआ । साधु सो गये । चार बजे फिर जागरण हुआ । सूर्योदयमे एक मुहूर्त्त बाकी रहा । एक आवाज आई। सब साधु फिर आचायवरको प्रातः कालिक वन्दना करने एकत्रित हो गए । वन्दना हुई । रात्रिक आत्मालोचन हुआ । सूर्य उगते - उगते साधु अपने दैनिक कार्यक्रममे लग गये | आपने आचार्यवरके आदेशानुसार वह सोरठा साधुओं को कण्ठस्थ करा दिया ।
समयकी गति अबाध है। दिन पूरा हुआ, रात आई । जो कल हुआ, वह आज भी हुआ। आप आचार्यवरको वन्दना कर मन्त्री मुनि मगनलालजी स्वामीको वन्दना करने गये । उन्होंने आपसे कहा - आचार्यवरने जो तुझे सोरठा फरमाया, उसके उत्तरमे तूने कुछ किया क्या ? आपने सकुचाते हुए कहानहीं । मन्त्री मुनिका संकेत पा आपने एक सोरठा रच आचायवरको निवेदन किया :
" महर रखो महाराव, लस चाकर पदकमलनो ।
सोख अपो सुखदाय, जिम जलदी शिव गति लहू || " यह काव्यमय गुरु-शिष्य - सम्वाद भावी गतिविधिका संकेत बा। अगर आप साधु- संघकी दृष्टिसे होनहार न होते तो यह सम्वाद अवश्य एक नई धारणा पैदा करता । वसी स्थिति पहले बनी हुई थी। इसलिए यह उसका पोपकमात्र बना ।