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विकासकी दिशा में
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क्या मैं नहीं भूलरहा हू ? क्या आचार - कौशलको दूसरा स्थान देकर मैंने कोई गलती नहीं की है ? नहीं । अनुशासनको पहला स्थान इसकी पुष्टिके लिए ही दिया गया है । एक साधुको आचार-कुशल होना चाहिए, यह पर्याप्त हो सकता है किन्तु आचार्यके लिए यह पर्याप्त नहीं होता । उनके साथ एक सूत्र और जुड़ता है, जैसे- स्वयं आचार कुशल रहना और दूसरे साधु-साध्विया आचार कुशल रहें, वैसी स्थिति बनाये रखना । उस स्थितिका नाम है अनुशासन । इसलिए आचार्य के प्रसंगमे आचार - कौशल से पहले अनुशासनको स्थान मिले, यह कोई अनहोनी बात नहीं है। अनुशासनकी योग्यता रखनेवाला आचार - कौशल ही एक मुनिको आचार्य पद तक पहुंचा
सकता है ।
तीसरी विशेषता संघ - हितैपिता और चौथी है विद्या । कालुगणीने आपको पहली बार देखा, तब आपके प्रति उनका एक सहज आकर्षण बना, उसे हम संस्कार मान सकते है । किन्तु बादमे उनकी आपको उत्तराधिकारी वनानेकी धारणा पुष्ट होती गई, वह आपकी योग्यताका ही परिणाम है । आपके मुनि-जीवन मे उक्त चारो विशेषताएं किस रूप मे विकसित हुई, इससे पाठक अपरिचित नहीं रह रहे है ।