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प्राचार्य श्रीतुलसी दिव्य आकृति थी, शरीर सुकुमार था, सबसे गजबकी थी वह मृदु मुम्कान, जो दर्शकोंको मुग्ध किये बिना न रहती। विद्या की अभिरुचि थी। हिन्दी और इङ्गलिशका अभ्यास चालू था । पवनकी गति वदली। वालकके विचारोमे आन्दोलन हुआ। विरक्तिके भाव उमड पड़े। चालू जीवनसे मुह मोडा । दीक्षा लेने को कटिबद्ध हो गया । यह कैसे हो सकता है ? क्यों हुआ ? क्या इस वयमे दीक्षाका वोध भी सम्भव है ? मैं इन प्रश्नोका विस्तृत उत्तर न देकर सिर्फ इतना ही कहूंगा कि यह हो सकता है, ऐसा हुआ है और यह सम्भव है। क्यो और कसेका उत्तर आप मानसशास्त्रियोंसे लीजिए, उनसे मानस-विश्लेपण कराइये।
पिता ( कन्हेयालालजी ) और पुत्र दोनों आचार्य श्री तुलसी के सामने करबद्ध प्रार्थना करने खड़े हुए-महामहिम | हम विरक्त है, दीक्षाके अभिलापी है, हमारी मनोभावना सफल करनेकी कृपा करें। आचार्यवरने उन्हे देखा, उनकी अन्तरभावनाकी झाकी ली
और उन्हें इन शब्दों द्वारा सान्त्वना दी कि अभी साधना करो। - तेरापन्थके नियमानुसार आचार्य अथवा उनकी विशेप आज्ञा के सिवाय और कोई दूसरा दीक्षा नहीं दे सकता। यही कारण था कि वे दीक्षाका निर्देश पाने के लिए बार-बार आचार्यश्री से प्रार्थना करते रहे। पूर्ण परीक्षणके वाद आचार्यश्रीने उन्हे दीक्षा की स्वीकृति दी। सं० १९६५ ( कार्तिक शुक्ला ३) मे सरदारशहर मे उनकी दीक्षा हुई।
दीक्षाके थोडे समय पश्चात् कन्हैयालालजीकी भावना शिथिल