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कविकी तूलिकाके कुछ चित्र
अब भी हो रहू प्रतीरे, ध्यावे यो धृति धर धीरे ।।
यह मिल्या सखा हितकारी, उत्तारूँ अघ की भारी । नहि द्वेष-भाव दिल लाऊँ, कैवल्य पलक में पाऊँ । सच्चिदानन्द बन जाऊं, लोकाग्र स्थान पहुँचाऊँ।। प्रक्षय हो भय प्राचीरे, ध्यावे यो धृति घर घोरे ॥
नहिं मरू न कवही जन्मू, कहिं परू न जग झझट म । फिर जरूँ न आग लपटमे, झर पडू न प्रलय-झपट मे ।। दुनिया के दारुण दु खमें, धधकत शोकानल धक में । नहिं धृकु सहाय समीरे, ध्यावे यो वृत्ति घर धीरे ।। नहिं बहूँ सलिल - स्रोतो मे, नहिं रहूँ भग्न • पोतो में ।