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कविकी तूलिकाके कुछ चित्र छिन - छिन में अपने जीवनमे, मति क्षति लामो धार्मिकपन में । धर्मस्थान ही धार्मिकता हित, मति इम मन बहलाओ। सुज्ञानी दृढ धार्मिक बनजाओ ।। व्यक्ति-जाति-हित देश-राष्ट्रहित, धार्मिकतामें निहित सकल हित । अहित किते निज कर्म-योग लख, धर्म - दोष मत गाओ।
सुज्ञानी दृढ धार्मिक वनजाम्रो ।।" इस प्रकार आपने अपने कवि-जीवनमे प्रत्येक क्षेत्रका स्पर्श किया है। जनसाधारणसे लेकर प्रतिभा-प्रभु व्यक्ति तकको नवचैतन्यपूर्ण सामग्री दी है। जिससे कंठके स्वर, मस्तिष्कके सुकुमार तन्तु, हृदयके प्रफुल्ल सरोज और आत्माकी अनुभूतिमे सहज चैतन्य भर आता है।