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श्राचार्य श्री तुलसी
राजनीतिका हुआ है । आपने इसे वडी दृढता के साथ व्यक्त किया है :
“धर्म अपनी मर्यादासे दूर हटकर राज्यकी सत्तामे घुलमिल कर विपसे भी अधिक घातक बन जाता है । यह वाणी धमद्रोही व्यक्तियों की है, यह नहीं माना जा सकता, धर्मके महान् प्रवर्तक भगवान् महावीर की वाणीमे भी यही है । धन और राज्य की सत्तामे विलीन धर्मको विप कहाजाये, इसमे कोई अतिरेक नहीं है । "
धर्मके प्रति धर्माचार्यकी ऐसी कटु आलोचना अध्यात्मके उज्ज्वल पहलू की ओर संकेत करती है । प्रत्येक व्यक्तिको समझना चाहिए कि धर्म में श्रद्धाका स्थान है, अन्धश्रद्धा का नहीं । आपका किसी वस्तुके प्रति आग्रह नहीं है । आपकी दृष्टि उसके गुणावगुणकी परखकी ओर दौड़ती है । आपकी लेखनी न्यायकी उपेक्षा और अन्याय से समझौता नहीं कर सकती । पत्रकार सम्मेलनमे आपने बताया :
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“आर्थिक वैषम्यको लेकर जो स्थिति बिगड़ रही है, उसे भी हम दृष्टिसे ओझल नहीं कर सकते । मेरो दृष्टिमे साम्यवाद इसीका परिणाम है । ...... लोग मुझसे पूछते है - क्या भारतमे साम्यवाद आयेगा ? मैं इसके लिए क्या कहूं ? यही कहना पडता हैआप बुलायेंगे तो आयेगा, नहीं तो नहीं 1 जिनके हृदय मे धर्मकी तड़फ है, उसकी रक्षाकी चिन्ता है, वे अर्थ-संग्रह करना छोड़ दें । उनकी भावना अपने आप सफल हो जायेगी । दान करने के लिए