________________
कुशल ग्रन्थकार
प्रत्येक महापुरुपका सर्वाग्रिम या सर्वान्तिम लक्ष्य होता है ज्ञान-विकास। वह आत्माकी अन्तर-प्रेरणासे मिलकर चलता है, आचरणको साथ लिए चलता है, इसलिए उसका दूसरा नाम होता है आत्म-विकास। विकसित व्यक्तियोंको अरिकासकी स्थिति सह्य नहीं होती, इसलिए वे अपनी विकासोन्मुख आत्माके भाव दूसरोंमे उंडेलना चाहते हैं। इस सत्प्रेरणाको हजारों शास्त्रग्रन्थोंकी रचनाका श्रेय मिला है। 'बालाना बोधवृद्धये', 'शिप्यानुप्रहाय' आदि आदि प्रारम्भ-वाक्योमे उक्त भावनाके स्फुट दर्शन मिलते हैं।
कविके लिए 'कान्यं यशसे' का क्षेत्र खुला है। किन्तु एक प्रन्धकारके लिए यह श्लाघनीय नहीं होता । उसकी गति सिर्फ