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आचार्य श्री तुलसी
विपमता हलाहल जहर है । उसकी एक रेखा कला, सौन्दर्य और साधनाको निर्जीव बना देती है । वह कला, वह सौन्दर्य और वह साधना मौलिक होती है, जिसका उत्स होता है समभाव । आप योगीराज है । 'समत्वं योग उच्चते' की योगपद्धति से आपका जीवन छलाछल भरा है ।
भारतीय संस्कृति और इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान् डा० कालीदास नाग आचार्यश्रीके दर्शन कर जो जान सके, उसे उन्हीं के शब्दों में देखिये:
"आचार्यश्री रास्ते के एक ओर वेदीपर बैठके धर्मोपदेश कर रहे थे श्रौर कितने ही श्रोता उनकी वाणी सुनने के लिए आये थे । उनमें केवल सम्प्रदायके लोग ही नही बल्कि सव घर्मो के लोग थे । मुसलमान भी थे। साधुकी वाणी सबके लिए है । साधु-सन्त यही करते आये है ।
उनकी सामना - प्रणाली और कला - कारीगरी देखकर भी मे मुग्ध हुआ था । केवल सत्यकी ही नही बल्कि सौन्दर्यकी साधना भी साथ साथ चल रही है । मैने वहा राजस्थानी भाषा में कविताएं भी सुनी उनसे भी मुझे बहुत आनन्द हुआ और में चाहता हू कि श्राप राजस्थानी संस्कृतिका परिचय इधर बगाल में भी दें ।"
अन्तर-दृष्टिवाले व्यक्तियोंका आकर्षणकेन्द्र बाहरी वस्तुजात नहीं होता । उन्हें ललचानेवाली कोई वस्तु होती है तो वह होती है सदाचारपूर्ण साधना । आचार्यवर इसके महान् धनी है ।
*जैन भारती वर्ष ११ अक १ जनवरी १९५०
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