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कविकी तूलिका के कुछ चित्र
पिण साची जन श्रुति, जगत्
पार ||
पुकार रे ।
एक पक्खी प्रीत नही, पडे पिठ पिऊ करत, पपयो पिण नही मुदिर नं, फिकर लिगार ॥" जैन-कथा-साहित्यमें एक प्रसंग आता है । गजसुकुमार, जो श्रीकृष्णके छोटे भाई होते थे, भगवान् अरिष्टनेमिके पास दीक्षित वन उसी रातको ध्यान करने के लिए श्मशान चले जाते है । वहाँ उनका श्वसुर सोमिल आता है । उन्हें साधु-मुद्रामे देख उसके क्रोधका पार नहीं रहता । वह जलते अंगारे ला मुनिके शिर पर रख देता है । मुनिका शिर खिचडीकी भाति कलकला उठता है । उस दशामे वे अध्यात्मकी उच्च भूमिकामे पहुंच 'चेतन-तन - भिन्नता' तथा 'सम' शत्रौ च मित्रे च' की जिस भावनामे आरूढ़ होते हैं, उसका साकार रूप आपकी एक कृतिमे मिलता है । उसे देखतेदेखते द्रष्टा स्वयं आत्म-विभोर बन जाता है । अध्यात्मकी उत्ताल उर्मियाँ उसे तन्मय किये देती हैं :
"जब घरे शीश पर खीरे, घ्यावे यो घृति-धर घीरे । है कौन वरिष्ट भूवन में,
जो मुझको आकर पीरे ॥ मै
अपनो रूप पिछानू,
हो उदय ज्ञानमय भानू ।
* गजसुकुमार
मझार रे
कदि
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