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आचार्य श्री तुलसी
नहिं जहूँ रूप में म्हारो, नहिं लहू' कष्ट मौतो में । नहिं छिदू घार तलवारा, नहिं भिदू भल्ल मलकारा । चहे आये शत्रु सभोरे,
ध्यावे यो घृति घर धीरे।" इसमे आत्म-स्वरूप, मोक्ष, संसार-भ्रमण और जड तत्त्वकी सहज-सरल व्याख्या मिलती है। वह टेट दिलके अन्तरतलमे पंठ जाती है। दार्शनिककी नीरस भाषाको कवि किस प्रकार रसपरिपूर्ण बना देता है, उसका यह एक अनुपम उदाहरण है।
आप केवल अध्यात्मवादी कवि हो नहीं है, दुनियाकी समस्याओं पर भी आपकी लेखनी अविरल गतिसे चलती है। वर्तमानकी कठिनाइयोंको हल करनेमे आपमे दार्शनिक चिन्तन, साधुका आचरण और कविकी कल्पना-इस त्रिवेणीका अपूर्व संगम होता है।
"मानवता की हत्या करके, क्या होगा उच्चासन वरके । आखिर तो चलना है मरके, ए जननी के लाले तुच्छ स्वार्थ तजो। आजादी के रखवाले तुच्छ स्वाथ तजो ।। अपनी मै मे मतवाले तुच्छ स्वार्थ तजो ।।