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आचार्य श्री तुलगी आप बचपनसे ही अध्यापन कार्यमे रहे है । इसलिए आपकी वक्त तामे वह शली झलक जाती है। प्रत्येक विषयका आदिसे अन्त तक निर्वाचन करना, व्युत्पत्तिसे फलित तक समझाना आपकी सहज प्रवृत्ति है। स्यात किसी प्रौढ श्रोताको यह यन किञ्चित् सा लगे किन्तु जनसावारण के लिए विशेष उपयोगी है । जनसाधारणके हृदय तक पहुंचनेवालोंकी वाणीमे मरलता और सरसता हो, यह नितान्त वाञ्छनीय है।
आप व्याख्यानके बीच कहीं कहीं गायन को भी आवश्यक समझते है । ग्रामीण अथवा अपढ़ लोगोके बीच आप अधिकतया कथा और चित्रोंका सहारा लेतेहै। उनके द्वारा गृढसे गढ तत्त्व सरल बन जाता है, हृदयमे पैठ जाता है। पण्डितोमे उनकी भापा तथा ग्रामीणोंमे ग्रामभापाके सहारे कार्य करना सफलताकी कजी है। सब जगह एकसा बने रहनेका अर्थ है असफल होना । ग्रामीणोंके बीच बैठकर कोई पण्डिताई जचाए तो वे वेचारे क्या समझ। उन्हें कोई उन जैसा बनकर समझाए तो वे समझने को तैयार है। उनमे शहरी लोगोंको भाति आग्रह, पक्षपात और बुराईके प्रति प्रेम नहीं है।
दिल्लीसे १० मील दूरी पर एक 'राई' ग्राम है। आप वहा पधारे। व्याख्यान हुआ। वहाके सैकडों ब्राह्मण और किसान सुनने आये। आपने तम्बाकू, व्यभिचार, शराब, खान-पानकी चीजोंमे मिलावट, कूड तोल-माप आदि बुराइयोंको उन्हें समझाया। उसी समय सैकडों व्यक्तियोंने इन सब बुराइयोंको छोड़ने