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विकामकी दिशा विकासके प्रति आचार्यवरकी सजगताकी एक छोटी सी किन्तु बहु मूल्यवान् घटना में पाठकोंके समक्ष रखूगा।
जैन-मनि पाद-विहार करते है, यह बताने की जरूरत नहीं। आचार्यवर मध्यभारतकी यात्रामे थे, तवकी बात है। आप विहारके समय आचायवरके साथ साथ चलते । वृद्ध - अवस्था के कारण आचार्यवर धीमी गतिसे चलते । समय अधिक लगता, इसलिए आचार्यवरने एक दिन कहा- "तुलसी । तू आगे चला जाया कर, वहा जा सीखा कर ।" आपने साथ रहनेका नम्र अनुरोध किया, फिर भी आचार्यवरने वह माना नहीं। इसे हम साधारण घटना नहीं कह सकते। आपके २०-२५ मिनट या आध घण्टेका उनकी दृष्टिमे कितना मूल्य था, इसका अनुमान लगाइये।
आपने कालुगणीको जितनी त्वरासे अपनी ओर आकृष्ट किया, उसका सूक्ष्म विश्लेपण करना दूसरे व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। वे स्वयं इसकी चर्चा करते तो कुछ पता चलता । खेद ऐकि वैसी सामग्री उपलब्ध नहीं हो रही है। ऐसा सुना जाता है कि आपके प्रति कालुगणीकी जो कृपा दृष्टि थी, वह संस्कारजन्य थी। यह ठोक है, फिर भी कारण बोजनेवालेको इतने मासे सन्तोष नहीं होता। वह काय-कारणके तथ्योको टढ निकालं विना विधाम नहीं ले सकता ।
तेरापंधके एकाधिनायक आचार्यम अनुशाननकी क्षमता होना सवसे पाली विशेषता है। एक शवला. समान आचार