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विरक्ति के निमित्त मोहनलालजी स्वभावतः कुछ विनोद-प्रिय हैं । दीक्षाको पूर्वरात्रिमे वे आपके पास आये और मीठी मुस्कानसे बोले- लो यह
__ लो। आपने कहा-क्या देते है भाईजी । कसौटी पर
उन्होंने कहा-देखो यह सौ रुपयेका नोट है। कल तुम दीक्षा लोगे। इसे साथ लिए जाना। साधु-जीवन बड़ा कठोर है। कहीं रोटी-पानी न मिले तो इससे काम ले लेना। मोहनलालजीके इस विनोदपूर्ण व्यंग्यसे वातावरण हँसी
से महक उठा। आपने हँसते हुए कहा-भाईजी । यह फ्या ___ कह रहे है ? इनका साधु-जीवनसे क्या मेल ? आप जानते है
साधुको यह रखना नहीं कल्पता। भाई-भाईके हास्यपूर्ण संवाद
से आस-पासमे सोनेवाले जाग उठे। आपकी बहिन लाडाजीने __ पूछा-क्या बात है ? इतनी हँसी किस बात की १ तुलसीकी
परीक्षा हो रही है-मोहनलालजीने कहा। ____दीक्षाके तत्काल बाद ही आप कालुगणीके सर्वाधिक कृपापात्र बन गये। मैं कुछ और आगे बढू तो मुझे यों कहना चाहिए कि कालुगणीकी आपके प्रति परिचयके पहिले क्षणोंमे जो दृष्टि पहुंची, वह अब साकार बन दूसरोंके सामने आई। एक बार मन्त्री मुनि मगनलालजी स्वामीने बताया कि आपके विरक्ति कालमे ही कालुगणीका ध्यान आपकी ओर झुक गया था। आपके पतले-दुवले कोमल शरीरकी स्फूर्ति और विशाल एवं चमकदार आंखोंका आकर्षण अपना उज्ज्वल भविष्य छिपाये नहीं रख सका।