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स्व-शिक्षा
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| कालुगणी तथा आचार्यश्री के निकट-सम्पर्कमें बीता है।
मुनिश्री चौथमलजी द्वारा रचित भिक्षुशब्दानुशासन की हद् वृत्तिके लेखक है। 'प्राकृत-काश्मीर' इनकी छोटी किन्तु दुन्दरतम रचना है। ये प्रकृतिके साधु है। इन्होंने निरवद्य वेद्यादानके रूपमे तेरापन्थ गणकी अमूल्य सेवायें की है और
सोलह वर्षको अवस्थामें आप कवि बने। पट्टोत्सव, मर्याहोत्सव आदि विशेष अवसरों पर आपकी कविता लोग बडे चावसे सुनते। आपने १८ वर्षकी उम्रमे 'कल्याण-मन्दिर' की
समस्या-पूर्तिके रूपमे 'कालु-कल्याण-मन्दिर' नामक एक स्तोत्र । रचा । आपका स्वर बड़ा मधुर था । आप उपदेश देते, व्याख्यान करते, गाते, तब लोग मुग्ध बनजाते। बहुधा ऐसा भी होता कि
आप गीतिका गाते और कालुगणि उसकी व्याख्या करते। आप - कई बार कहा करते है कि "मैं ज्यों-ज्यों अवस्थामे बड़ा होता , गया, त्यों-त्यों मोटे स्वरमे गाने और बोलनेकी चष्टा करने
या। कारणकि ऐसा किये बिना प्रायः अवस्था
-साथ (१६ वर्पके बाद ) एकाएक कण्ठ बेसुरे बन
साथमे रहे। सिर्फ एक बार शारीही" लिए आपको अलग रहना के कारण आपको वह बहुत
अलग रखना नहीं चाहते