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आचार्य श्री तुलसी
आती, उनका हिसाब ( विक्रय, मूल्य-संयोजन आदि) मेरे पास रहता । अनुशासन व अध्यापन ये दो कार्य वचपन से ही मेरे आदतरूप बन गये थे । इसी कारण तथा अन्य कई कारणों से भी मेरी पढ़ाई में काफी कमी रही । अर्थात् दश वर्ष में जितनी पढ़ाई होनी चाहिये थी, नहीं हो पाई ।
सचाईके प्रति मेरा सदासे अटूट विश्वास रहा है । मुझे याद है कि एक दिन मोहनलालजीकी बहू ( वडी भाभी) ने मुझसे कहा - 'मोती । ये पैसे लो, बाजारमे जा कुछ लोहेके कीले ला दो | नेमीचन्दजी कोठारी, जो मेरे मामा होते थे, मैं उनकी दूकान गया । उन्होंने पैसे बिना लिये ही मुझे कीले दे दिये । वापिस आके मैने वे भाभी को दे दिये और साथ-साथ पैसे भी दे दिये । यदि मैं चाहता तो पैसोंको आसानीसे मेरे पास रख सकता था, फिर भी सचाई के नाते मैंने वे नहीं रखे । "
मनोविज्ञान बताता है कि पाच वर्षकी अवस्था से ही भावी जीवनका निर्माण होने लग जाता है । वालककी सहज रुचि अपने भविष्य की ओर संकेत करती है। आप जानते है कि निर्माण मे अडचने भी कम नहीं आती। सन्धि-वेला मे विकास और हासका विचित्र संघर्ष होता है । अन्तिम विजय उसकी होती है, जिसकी ओर बालकका कर्तृत्व अधिक झुकता है । आचार्यश्रीके जिस बाल- जीवनकी पाठकोंने स्वर्णिम पंक्तिया
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१ मारवाड में भाभी अपने देवर के सम्वोधन के लिए 'मोती' शब्दका प्रयोग करती है।