Book Title: Pravachansara Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004159/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्रवचनसार (खण्ड-2) (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन সান্তু তাীরী তাত্রী जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) (मूलपाठ - डॉ. ए. एन. उपाध्ये) ( व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी षाणु ज्जोनी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण : अप्रैल, 2014 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -300 रुपये ISBN 978-81-926468-2-4 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स • जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या 10. 14 124 138 क्र.सं. विषय प्रकाशकीय द्रव्य और पर्याय की अवधारणाः सम्पादक की कलम से संकेत सूची ज्ञेय-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 छंद । परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश 152 156 161 169 171 178 181 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'प्रवचनसार (खण्ड-2) हिन्दी-अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती है। आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से प्रवचनसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है। इसमें कुल 275 गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में तीन अधिकार हैं। 1. ज्ञान-अधिकार 2. ज्ञेय-अधिकार 3. चारित्र-अधिकार। पहले ज्ञान-अधिकार में 92 गाथाएँ हैं। इसमें आत्मा और केवलज्ञान, इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख, शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग तथा मोहक्षय आदि का प्ररूपण है। दूसरे ज्ञेय-अधिकार में 108 गाथाएँ हैं। इसमें द्रव्य और पर्याय की अवधारणा, द्रव्यों का स्वरूप, पुद्गल के कार्य, संसारी जीव और . साधना के आयाम, शुद्वोपयोग की साधना आदि का निरूपण है। तीसरे चारित्रअधिकार में 75 गाथाएँ हैं। इसमें आगमज्ञान का महत्व, श्रमण का लक्षण, मोक्षतत्व आदि का निरूपण है। ‘प्रवचनसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के (v) For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'प्रवचनसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत पुस्तक के तीन अधिकारों में से ज्ञान-अधिकार, खण्ड-1 प्रकाशित किया जा चुका है। अब ज्ञेय-अधिकार, खण्ड-2 प्रकाशित किया जा रहा है। अपभ्रंश भाषा के दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में प्रवचनसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'प्रवचनसार (खण्ड-2)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने प्रवचनसार(खण्ड-2) का हिन्दीअनुवाद करके प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह है। न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी डॉ. कमलचन्द सोगाणी अध्यक्ष मंत्री संयोजक प्रबन्धकारिणी कमेटी . जैनविद्या संस्थान समिति दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2540 13.04.2014 (vi) For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक की कलम से डॉ. कमलचन्द सोगाणी द्रव्य और पर्याय की अवधारणा लोक के पदार्थ द्रव्यस्वरूप होते हैं और द्रव्य अस्तित्वमय है। यदि द्रव्य अस्तित्वमय नहीं है तो द्रव्य अस्तित्वरहित होगा या फिर वह द्रव्य अन्य कुछ होगा। दोनों स्थितियों में वह द्रव्य कैसे होगा? इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता है (सयं सत्ता)। यहाँ यह समझना चाहिये कि सत्ता और द्रव्य में प्रदेश-भिन्नता (पृथकता) नहीं हैं किन्तु प्रदेश-भेद के बिना भी सत्ता और द्रव्य में तादात्म्य का अभाव है उनमें अन्यत्व' नामक भेद है अर्थात् उनमें स्वरूप भेद है। जो द्रव्य है वह सत्ता नहीं है और जो सत्ता है वह द्रव्य नहीं है। कहने का अभिप्राय यह हैः सत्ता द्रव्य के आश्रित रहती है और वह एक गुण है किन्तु द्रव्य किसी के आश्रित नहीं रहता है और अनन्त गुण-पर्याय-सहित होता है। इस तरह दोनों एक-दूसरे से अन्य हैं; एकरूप नहीं है। इस तरह सत्ता द्रव्य का एक लक्षण है। सत् स्वभाववाला द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त होता है। उत्पत्ति (उत्पाद) नाश (व्यय) से रहित नहीं है और नाश (व्यय) उत्पत्ति (उत्पाद) से रहित नहीं है। उत्पाद और नाश (व्यय) भी ध्रौव्य पदार्थ के बिना नहीं होता है। चूँकि उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और नाश (व्यय) पर्यायों में रहते हैं; पर्यायें द्रव्य में होती हैं, इसलिए आवश्यकरूप से वह सब द्रव्य में ही होता है। इस तरह द्रव्य एक समय में तीन का समूह होता है (तत्तिदयं)। कहने का अभिप्राय यह है कि जब किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न होती है तब उसी द्रव्य की कोई पर्याय नष्ट होती है; तो भी वह द्रव्य न ही उत्पन्न हुआ, न ही नष्ट हुआ, वह ध्रुव है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (1) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की तात्विक धारणा के अनुरूप द्रव्य परिणमन स्वभाववाला होता है। इसलिए दो प्रकार की उत्पत्ति से युक्त रहता है। (1) सत्रूप उत्पत्ति (2) असत्रूप उत्पत्ति। ये दोनों प्रकार की उत्पत्तियाँ द्रव्य में अविरोधरूप से उपस्थित रहती हैं। उदाहरणार्थ, परिणमन स्वभाव के कारण सोनारूपी द्रव्य जब कंकण को उत्पन्न करता है तो द्रव्यदृष्टि से पूर्व में विद्यमान सोना बना रहता हे और पर्यायदृष्टि से पूर्व में अविद्यमान कंकण उत्पन्न होता है। द्रव्य में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-सहित परिणाम है वह द्रव्य का ही स्वभाव है। - आचार्य कुन्दकुन्द एक दूसरे प्रकार से भी द्रव्य का लक्षण कहते हैं। अस्तित्व स्वभावमय द्रव्य गुण-पर्याय युक्त होता है। वे कहते हैं: द्रव्य अस्तित्व है, गुण अस्तित्व है और पर्याय भी अस्तित्व है। किन्तु द्रव्य-गुण-पर्याय का अस्तित्व से तादात्म्य नहीं है। उनका अस्तित्व से ‘अन्यत्व' नामक भेद है। दूसरे शब्दों में जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह तादात्म्य का अभाव है किन्तु यह निश्चय ही अभाव नहीं कहा गया है। इस लोक में बिना द्रव्य के न कोई गुण है और न कोई पर्याय है। द्रव्य के लक्षणों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को एकसाथ कहने पर इस प्रकार कहा गया हैः सत् स्वभाव सहित जो पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता संयुक्त है तथा गुण-पर्याय-युक्त है वह ही द्रव्य कहा गया है। उदाहरणार्थ, सत्रूप सोनेरूपी द्रव्य में ही पीलापन आदि गुण और कुंडलादि पर्याय होती है और जब कंकणादि का उत्पाद किया जाता है तो कुंडलादि पर्याय का व्यय होता है किन्तु सोनारूपी द्रव्य का अस्तित्व यथावत् रहता है। अतः द्रव्य सत् स्वभाव को लिये हुए गुण-पर्याय सहित तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त एक (2) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ अविरोधरूप से कहा जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य-पर्याय की धारणा को जीव पर घटित करते हुए कहते हैं कि जब जीव विभिन्न जन्मों में मनुष्यरूप, देवरूप अथवा अन्यरूप होता है तो भी वह द्रव्यदृष्टि से जीव ही रहता है यद्यपि पर्यायदृष्टि से पर्याय से तन्मयता बनाये हुए रहता है और एक पर्याय की स्थिति में जब तक रहता है तब तक दूसरी पर्याय से भिन्न बना रहता है। अतः कहा गया है कि द्रव्यार्थिकनय से एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में कोई भी द्रव्य भिन्न नहीं होता है और पर्यायार्थिकनय से वही द्रव्य पर्यायों की भिन्नता के कारण भिन्न होता है क्योंकि वह द्रव्य उसी पर्याय से उस अवसर पर एकरूप होने के कारण भिन्न कहा जाता है। इसलिए दार्शनिक शब्दावली में इस प्रकार व्यक्त किया गया है (अतः) द्रव्य किसी प्रकार से (द्रव्यार्थिकनय से) 'अस्ति' ही है और द्रव्य किसी प्रकार से पर्यायार्थिकनय से 'नास्ति' ही है अर्थात् वह द्रव्य पर्याय से एकरूप होने के कारण पर्यायरूप हो गया। (दोनों को एक साथ कहना चाहें तो) (वही द्रव्य) 'अवक्तव्य' ही होता है और (अलग-अलग कहना चाहें तो) द्रव्य अस्तिनास्ति तथा अन्य (तीन प्रकार से) कहा गया (है) अर्थात अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य। ____पर्याय की धारणा के प्रसंग में कहा गया है कि उक्त मनुष्यादि पर्याय . नित्य नहीं है, क्योंकि इन पर्यायों में उत्पन्न राग-द्वेषात्मक क्रियाएँ सदैव रहती हैं जो संसारी पर्यायरूप फल उत्पन्न करती है। इन पर्यायों में जीव द्रव्य नित्य ही उपस्थित रहता है। वह उत्पन्न और नष्ट नहीं होता है। पर्यायें ही उत्पन्न और नष्ट होती हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (3) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि पर्यायों से मोहित व्यक्ति अध्यात्मविहीन दृष्टिवाले होते हैं और जो आत्म-द्रव्य में रत होते हैं वे आध्यात्मिक दृष्टिवाले समझे जाने चाहिये। . आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य के परिणमन स्वभाव की एक और अभिव्यक्ति को समझाते हुए कहते हैं कि परिणमन स्वभाव के कारण आत्मचेतना पदार्थ के विचाररूपी ज्ञान में, अनेक प्रकार के कर्म में और सुख-दुःखरूप कर्म के फल में रूपान्तरित होती है। इतना होते हुए भी जो परिणमन ज्ञान-कर्मकर्मफलरूप में घटित होता है वह आत्मा ही समझा जाना चाहिये और वे ही श्रमण शुद्धात्मा को प्राप्त करते हैं, जो कर्ता, करण (साधन), कर्म और कर्मफल को आत्मा ही समझ लेते हैं। द्रव्यों का स्वरूप जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य हैं। इन्हीं छह द्रव्यों से लोक निर्मित हैं। केवल आकाश द्रव्य का विस्तार अलोक' में भी है। बाकी द्रव्य- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल- अलोक में नहीं कहे गये हैं। कहा है- “आकाश द्रव्य लोक और अलोक में रहता है लोक धर्म और अधर्म से व्याप्त है। जीव और पुद्गल लोक में हैं। काल जीव और पुद्गल के परिवर्तन को अवलम्बन करके जाना जाता है।"(44) ____ सभी द्रव्य प्रदेश-सहित होते हैं। प्रदेश-रहित द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है। प्रवचनसार के अनुसार, “जिस द्रव्य के अनेक प्रदेश नहीं है और एक प्रदेश मात्र भी जानने के लिए नहीं हैं, उस द्रव्य को तुम शून्य जानो (सुण्णं जाण तुमत्थं)।" प्रदेश की अवधारणा को समझते हुए प्रवचनसार का कहना है कि पुद्गल के एक परमाणु से रोका हुआ जो आकाश द्रव्य है, वह प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश 'एक प्रदेश' कहा गया है। इसकी सामर्थ्य इतनी है कि वह आकाशप्रदेश सब परमाणुओं के लिए अवकाश देने के लिए सक्षम है। छ द्रव्यों का विभाजन जीव- अजीव रूप से तथा मूर्त-अमूर्त रूप से भी किया गया है। जीव द्रव्य चेतनायुक्त भावात्मकता (चेतनामय - उपयोगमय) है। अन्य पाँच अजीव द्रव्य चेतना - रहित हैं। प्रवचनसार में जीव के लक्षण को विशिष्ट प्रकार से समझाते हुए कहा है कि जीव रूप-रहित, रस-रहित, गंधरहित, स्पर्श से भी अप्रकट, ध्वनि गुण-रहित, चेतना गुणवाला, तर्क से ग्रहण न होनेवाला तथा अवर्णित आकारवाला है (80)। पुद्गल द्रव्य मूर्त है और जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्त हैं। जो मूर्त गुण हैं वे इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य होते हैं। इस तरह सूक्ष्म पुद्गल परमाणु से महास्थूल पुद्गल द्रव्य में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुण विद्यमान हैं। अनेक प्रकार की ध्वनियाँ पुद्गल परमाणु में उपस्थित नहीं होती किन्तु पुद्गलस्कन्धों की उपज है। अन्य अमूर्त द्रव्यों के गुण है; आकाश का गुण सब द्रव्यों को स्थान देना, धर्म द्रव्य का गुण गमन में सहयोग, अधर्म द्रव्य का गुण स्थिति में सहयोग, काल द्रव्य का गुण परिवर्तन में सहयोग। जीव का गुण, जैसे कहा गया है, चेतनायुक्त भावात्मकता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि काल के द्रव्यरूप में अस्तित्व को प्रवचनसार में विशेष प्रकार से समझाया गया है। 'समय' को आधार बनाकर बताया गया है कि आकाश द्रव्य के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक परमाणु की मंदगति से गमन अवधि समय है, जो एक प्रदेशी है। यह समय पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। इसका आधारभूत पदार्थ 'काल'/'कालाणु' है। प्रवचनसार (खण्ड-2 -2) For Personal & Private Use Only (5) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक पुद्गल के कार्य पुद्गल परमाणु द्रव्यों का समूह है। शरीर, मन और वाणी-ये तीनों योग पुद्गल द्रव्यात्मक है। शरीर के सभी भेद-औदारिक, वैक्रियिक, तेजस, आहारक और कार्मण शरीर पुद्गल-द्रव्य से निर्मित है। पुद्गल के परमाणु स्निग्ध अथवा रूक्ष गुणयुक्त होते हैं। इसके ही स्वपरिणमन से सूक्ष्म तथा स्थूल पृथ्वी शरीर, जल शरीर, वायु शरीर और अग्नि शरीर उत्पन्न होते हैं। परमाणुओं का संयोग नियमयुक्त होता है। निम्नतम अंशवाले परमाणु का किसी दूसरे परमाणु से संयोग नहीं होता है। स्निग्धता में दो अंशवाला परमाणु चारअंशवाली स्निग्धता से बँध को प्राप्त होता है तथा रूक्षता में तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाली रूक्षता से बाँधा जाता है। स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुओं (के अंशों) का (बँधने योग्य) परिणमन यदि निम्नतम अंश रहित हो (किन्तु) (संख्या में) सम अंश (2,4,6....) अथवा (संख्या में) विषम अंश (3,5,7....) हो और (समविषम) समान अंशों से दो अंश अधिक हो (तो) (वे) बाँधे जाते हैं। (73) प्रवचनसार का कथन है कि जीव के लिए कर्मरूप होने योग्य पुद्गल राशि से यह लोक भरा हुआ है। संसारी जीव और साधना का आयाम संसार अवस्था में जीव द्रव्य चार प्राणों से युक्त होता है। इन्द्रिय प्राण (पाँच), बल प्राण (तीन), आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण। ये चारों प्राण पुद्गल द्रव्य से निर्मित है। प्रवचनसार का कथन है कि राग-द्वेष-मोह के फलस्वरूप कर्मों से बँधा हुआ जीव प्राणों से संयुक्त होता है, कर्मफल को भोगता है तथा अन्य कर्मों से बाँधा जाता है। कर्मों से मलिन यह जीव बार-बार प्राणों को धारण करता है, जब तक वह पुद्गलात्मक इन्द्रिय सुखों में ममत्व नहीं छोड़ता (6) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जब व्यक्ति इन्द्रियों को जीतकर आत्मध्यान में लग जाता है तो वह कर्मों से नहीं बाँधा जाता है। उसके फलस्वरूप वह प्राणों से मुक्त हो जाता है। संसारी जीव के नर, नारकी, तिर्यंच और देव पर्यायें कर्मोत्पन्न होती है। ____संसारी जीव की चेतनायुक्त भावात्मकता (उपयोग) दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ। शुभ भाव से पुण्य का संग्रह होता है और अशुभ भाव पापोत्पादक है। जो जीवों के प्रति करुणा भाव से युक्त है, उसकी भावात्मकता (उपयोग) शुभ है। जो कषायों के वशीभूत जीवों के प्राणों की क्षति करता है, जिसकी भावात्मकता इन्द्रिय विषयों में गाढ़ी है, जो खोटे मनवाला है, जो व्यर्थ चर्चा में संलग्न है, जो सदैव आक्रामक रूखवाला रहता है, जो कुमार्ग पर है, जो कषायोत्तेजक साहित्य में रसयुक्त है उसकी भावात्मकता (उपयोग) अशुभ है। प्रवचनसार के अनुसार पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। (89) अतः निस्सन्देह कहा जा सकता है कि समाज में पर की अपेक्षा सर्वोपरि होती है। उसका विकास शुभ परिणामों से ही होता है। ऐसा लगता है आचार्य ने यहाँ समाज को दृष्टि में रखकर पर के प्रति शुभ परिणाम की बात कहकर समाज विकास के सूत्र की ओर ध्यान आकर्षित किया है। संसारी जीव अर्थात् सामाजिक व्यक्ति इन शुभ-अशुभ परिणामों का स्वयं कर्ता है। (84) इनका उत्तरदायित्व उस पर है। जो व्यक्ति सामाजिक निर्माण में ही रसयुक्त है, उसे शुभ परिणाम में संलग्न होना और अशुभ परिणाम से विमुख होना अनिवार्य है। अशुभ परिणामों से समाज का पतन होता है और शुभ परिणामों से समाज विकासोन्मुख होता है। शुभ-परिणाम में आचार्य ने करुणा भाव को प्रमुख स्थान दिया है। (65) जीवों के प्राणों की विभिन्न प्रकार से क्षति को अशुभ परिणाम कहा है। (57) अतः समाज में शुभ परिणामों का शिक्षण महत्वपूर्ण है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (7) For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग की साधना प्रारम्भ में यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि शुद्धोपयोग की साधना पूर्णतया व्यक्तिगत होती है। समाज के लिए पर की अपेक्षा है तो शुद्धोपयोग के लिए स्वाश्रितता होती है। धीरे-धीरे जब व्यक्ति को पराश्रितता के कष्टों का अनुभव होता है, तो वह स्व की ओर मुड़ता है। यहीं से शुद्धोपयोग की साधना का प्रारंभ है। प्रवचनसार में 'मैं' के आधार से शुद्धोपयोग की बात कही गई है। व्यक्ति जब सजग होता है तो कहता है : मैं न शरीर (हूँ), न मन' (हूँ), और न ही वचन (हूँ), न उनका कारण (हूँ), न कर्ता (हूँ), न करानेवाला (हूँ), न ही करनेवाले का अनुमोदक (हूँ) । (68) शुद्धोपयोग की साधना में पूर्णतया कर्मों से छुटकारा ध्येय होता है। शुभ परिणाम से पुण्य कर्म आता है और अशुभ परिणाम से पाप कर्म। किन्तु यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि पुण्य कर्म पराश्रित, अड़चनों सहित तथा उससे प्राप्त सुख-सन्तोष विनाशवान होता है। शुद्धोपयोग ऐसे सुख को जीवन में लाना चाहता है जो स्वआश्रित हो, अनुपम हो, अनन्त और शाश्वत हो। इसलिए शुद्धोपयोगी की साधना की दिशा स्वोनमुखी हो जाती है। शुद्धोपयोगी की समझ में यह बात दृढ़ हो जाती है कि रागयुक्त जीव कर्मों को बाँधता है, किन्तु राग-रहित जीव कर्मों से छुटकारा पा जाता है। जो परिणाम परापेक्षी नहीं है वह दुःख के नाश का कारण कहा गया है। शुद्धोपयोग की साधना ध्यान केन्द्रित होती है। ध्यान को जीवन में लाने के लिए 'मैं'का उपयोग करके आचार्य कहते हैं- “मैं अशुभोपयोग से रहित हूँ, शुभ में (भी) संलग्न नहीं हूँ अन्य विषयों (निंदा - प्रशंसादि) में मध्यस्थ हूँ और ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ।” आत्मा का ध्यान करनेवाले के भाव इस प्रकार वर्णित हैं: “न मैं पर का होता हूँ, न पर मेरे हैं, मैं ज्ञानस्वरूप (8) For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-2 -2) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकेला हूँ।” “मैं आत्मा को शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, शाश्वत, स्वाधीन और अतीन्द्रिय महापदार्थ स्वीकार करता हूँ।" शुद्धोपयोगी विचारता है “जीव के लिए, देह या संपत्ति, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र अविनाशी नहीं है, चेतनायुक्त भावात्मक (उपयोगात्मक) आत्मा ही अविनाशी है। फलस्वरूप गृहस्थ या मुनि इस प्रकार समझकर उत्कृष्ट आत्मा को ध्याता है, तो वह मोहगांठ (आत्मविस्मृति रूपी गाँठ) को नष्ट कर देता है और श्रमण अवस्था में साधक राग-द्वेष-मोह को नष्ट करके अविनाशी सुखों को प्राप्त कर लेता है। आचार्य अन्त में कहते हैं: “मैं ज्ञायक आत्मा को स्वभाव से जानकर ममत्व को त्यागता हूँ और निर्ममत्व में स्थित होता हूँ।" प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार को भली-भाँति समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसेसंज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा। अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य क्रिविअ - क्रिया विशेषण अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भूकृ - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त स - सर्वनाम संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग •()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। (10) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •[()+()+().....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। [()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है। •{[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। 'जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। ‘जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है। क्रिया-रूप निम्न प्रकार लिखा गया है 1/1 अक.या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन प्रवचनसार (खण्ड-2) (11) For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्न प्रकार लिखी गई है- . . चन चन 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन (12) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) ज्ञेय-अधिकार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि। तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया।। पदार्थ अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि तेहिं (अत्थ) 1/1 अव्यय निश्चय ही (दव्वमअ) 1/1 वि द्रव्यस्वरूप (दव्व) 1/2 द्रव्य (गुणप्पग) 1/2 वि गुणात्मक (भण-भणिद) भूकृ 1/2 कहे गये (त) 3/2 सवि उनसे युक्त अव्यय (पज्जाय) 1/2 पर्यायें [(पज्जाय-पज्जय)-(मूढ) पर्यायों से मोहित भूक 1/2 अनि अव्यय किन्तु (परसमय) 1/2 वि इतर दृष्टिवाले पुणो फिर पज्जाया पज्जयमूढा परसमया ___अन्वय- अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि पुणो तेहिं पज्जाया हि पज्जयमूढा परसमया। अर्थ- (ज्ञेय) पदार्थ निश्चय ही द्रव्यस्वरूप (होता है)। द्रव्य गुणात्मक कहे गये (हैं)। फिर उन (गुणात्मक द्रव्यों) से युक्त पर्यायें (होती है) किन्तु (उन) पर्यायों से मोहित (व्यक्ति) इतर (जिनभिन्न) दृष्टिवाले (कहे गये हैं)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (15) . For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा।। . जो पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति (ज) 1/2 सवि (पज्जाय) 7/2 पर्यायों में (णिरद) 1/2 वि तल्लीन (जीव) 1/2 जीव । [(परसमयिगा)+ (इति)] [(पर) वि- (समयिग)1/2 वि] इतर दृष्टिवाले इति (अ) = ही (णिद्दिठ्ठ) भूकृ 1/2 अनि कहे गये . [(आद)-(सहाव) 7/1] आत्मस्वभाव में (ठिद) भूकृ 1/2 अनि स्थित (त) 1/2 सवि वे (सगसमय) 1/2 वि स्व दृष्टिवाले (मुण) विधिक 1/2 समझे जाने चाहिये णिट्ठिा आदसहावम्मि ठिदा सगसमया मुणेदव्वा अन्वय- जे जीवा पज्जयेसु णिरदा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा। __ अर्थ- जो जीव (व्यक्ति) पर्यायों में तल्लीन (होते हैं) (वे) इतर (जिन भिन्न) दृष्टिवाले ही कहे गये (हैं) (और) (जो) (जीव) आत्मस्वभाव में स्थित (होते हैं) वे स्व (जिन) दृष्टिवाले समझे जाने चाहिये। (16) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति।। अपरिच्चत्तसहावेणु- [(अपरिच्चत्तसहावेण)+ प्पादव्वयधुवत्त- (उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं)] संजुत्तं [(अपरिच्चत्त) भूक अनि- न छोड़े हुए /शाश्वत (सहाव) 3/1] अस्तित्व स्वभाव सहित [(उप्पाद)-(व्वय)-(धुवत्त)- उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यता (संजुत्त) भूकृ 1/1 अनि से संयुक्त गुणवं (गुणव) 1/1 वि गुणयुक्त अव्यय . और सपज्जायं (स-पज्जाय) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि दव्वं ति [(दव्वं)+ (इति)] दव्वं (दव्व) 1/1 द्रव्य इति (अ) = ही वुच्चंति (वुच्च ) 3/2 सक कहते हैं .. पर्याययुक्त . 4. ही अन्वय- अपरिच्चत्तसहावेण जं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं गुणवं च सपज्जायं तं दव्वं ति वुच्चंति। अर्थ- न छोड़े हुए/शाश्वत अस्तित्व स्वभाव सहित जो (पदार्थ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यता से संयुक्त (है) (तथा) गुणयुक्त और पर्याययुक्त (है) वह ही द्रव्य (है) (ऐसा) (जिन) कहते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (17) . For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सह पज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं।। सब्भावो (सब्भाव) 1/1 . अस्तित्व अव्यय निश्चय ही सहावो (सहाव) 1/1 स्वभाव गुणेहिं (गुण) 3/2 गुणों सह अव्यय ' से युक्त पज्जएहिं (पज्जाअ) 3/2 पर्यायों चित्तेहि (चित्त) 3/2 वि अनेक प्रकार के दव्वस्स (दव्व) 6/2 द्रव्य का सव्वकालं [(सव्व) सवि-(काल) 2/1] सर्वकाल में उप्पादव्वयधुवत्तेहिं [(उप्पाद)-(व्वय)-(धुवत्त) उत्पाद-व्यय3/2] ध्रुवत्व (सहित) अन्वय- दव्वस्स हि सहावो सब्भावो सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं चित्तेहिं गुणेहिं पज्जएहिं सह। .. अर्थ- द्रव्य का निश्चय ही स्वभाव अस्तित्व (है)। (जो) सर्वकाल में उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व (सहित) (है) (तथा) अनेक प्रकार के गुणों (और) पर्यायों से युक्त (है)। 1. 'सह' के योग में तृतीया होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (18) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. इह विविहलक्खणाणं' इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं । उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ।। लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं उवदिसा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं 1. प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) अव्यय [ ( विविह) वि - ( लक्खण) 6/2] [(लक्खणं) + (एगं)] लक्खणं ( लक्खण) 1 / 1 एगं (एग ) 1 / 1 वि (सदिति) 1/1 अनि ( सव्वगय) 1 / 1 वि ( उवदिसदा) 3 / 1 वि अनि अव्यय (धम्म) 1/1 ( जिणवरवसह ) 3 / 1 (पण्णत्त) भूकृ 1 / 1 अनि अन्वय- इह विविहलक्खणाणं एगं लक्खणं सव्वगयं सदिति उवदिसदा जिणवरवसहेण खलु धम्मं पण्णत्तं । अर्थ - इस लोक में अनेक लक्षणों में से (द्रव्य का) एक लक्षण सब (पदार्थों) में स्थित अस्तित्व ही ( है ) । उपदेशक जिनश्रेष्ठ अरिहंत (तीर्थंकर) द्वारा निश्चय ही (यह) स्वभाव कहा गया ( है ) । कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134) इस लोक में अनेक लक्षणों में से For Personal & Private Use Only लक्षण एक अस्तित्व ही सब में स्थित . उपदेशक निश्चय ही स्वभाव जिनश्रेष्ठ अरिहंत (तीर्थंकर) द्वारा कहा गया (19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा। सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ।। दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा सिद्धं तध आगमदो (दव्व) 1/1 द्रव्य . [(सहाव)-(सिद्ध) 1/1वि] स्वभाव से निर्मित (सदिति) 1/1 अनि अस्तित्व ही (जिण) 1/2 जिनेन्द्रदेवों ने (तच्चदो) अव्यय यथार्थरूप से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (समक्खाद) भूकृ 1/2 अनि . कहा (सिद्ध) 1/1 वि सिद्ध अव्यय इस तरह (आगमदो) अव्यय आगमपूर्वक पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय [(ण)+ (इच्छदि)] ण (अ) = नहीं इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक मानता है (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि वह अव्यय निश्चय ही (परसमअ) 1/1 वि इतर दृष्टिवाला णेच्छदि नहीं ग परसमओ अन्वय- दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा तध आगमदो सिद्धं जो णेच्छदि सो हि परसमओ। अर्थ- द्रव्य स्वभाव से निर्मित अस्तित्व' ही (है) जिनेन्द्रदेवों (तीर्थंकरों) ने यथार्थरूप से (ऐसा) कहा (है)। इसतरह (वह कथन) आगमपूर्वक (भी) सिद्ध (हो जाता है)। जो (इसे) नहीं मानता है वह निश्चय ही इतर (जिनभिन्न) दृष्टिवाला (है)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का कर्तृवाच्य में प्रयोग हुआ है। (20) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो।। सदवट्ठिदं सहावे दव्वं . दव्वस्स परिणामो अत्थेसु (सदवट्ठिद) भूकृ 1/1अनि . अस्तित्व में ठहरा हुआ (सहाव) 7/1 स्वभाव में (दव्व) 1/1 द्रव्य (दव्व) 6/1 द्रव्य का (ज) 1/1 सवि . अव्यय (परिणाम) 1/1 परिणमन (अत्थ) 7/2 पदार्थों में (त) 1/1 सवि वह (सहाव) 1/1 स्वरूप [(ठिदि)-(संभव)- स्थिति, उत्पत्ति और (णास)-(संबद्ध) विनाश-सहित भूकृ 1/1 अनि] सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो अन्वय- सदवट्ठिदं दव्वं सहावे अत्थेसु जो ठिदिसंभवणाससंबद्धो परिणामो सो दव्वस्स हि सहावो। अर्थ- ‘अस्तित्व' में ठहरा हुआ द्रव्य स्वभाव में (ही) (है)। पदार्थों में जो स्थिति, उत्पत्ति और विनाश-सहित परिणमन (है) वह द्रव्य का ही स्वरूप प्रवचनसार (खण्ड-2) (21) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण।। भवो भंगविहीणो भंगो वा और णत्थि संभवविहीणो उप्पादो अव्यय नहीं (भव) 1/1 उत्पत्ति [(भंग)-(विहीण) 1/1 वि] नाश से रहित (भंग) 1/1 . नाश अव्यय अव्यय नहीं है [(संभव)-(विहीण) 1/1 वि] उत्पत्ति से रहित (उप्पाद) 1/1 उत्पाद अव्यय और (भंग) 1/1 . नाश अव्यय नहीं अव्यय बिना (धोव्व) 3/1 वि ध्रौव्य (अत्थ) 3/1 पदार्थ अव्यय विणा धोव्वेण अत्थेण अन्वय- भवो भंगविहीणो ण वा भंगो संभवविहीणो णत्थि उप्पादो य भंगो वि धोव्वेण अत्थेण विणा ण। अर्थ- उत्पत्ति (उत्पाद) नाश (व्यय) से रहित नहीं (होती है) और नाश (व्यय) उत्पत्ति (उत्पाद) से रहित नहीं (होता) है। उत्पाद और नाश (व्यय) भी ध्रौव्य पदार्थ के बिना नहीं (होता है)। 1. 'बिना' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी होती है। (22) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वं हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं।। उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया उत्पाद, स्थिति और नाश होते हैं पर्यायों में पर्यायें द्रव्य में दव्वं [(उप्पाद)-(ट्ठिदि)-(भंग) 1/2] (विज्ज) व 3/2 अक (पज्जाय+पज्जय) 7/2 (पज्जाय) 1/2 (दव्व) 2/1 . अव्यय (संति) व 3/2 अक अनि अव्यय अव्यय (दव्व) 2/1 (हव) व 3/1 अक (सव्व) 2/1 सवि चूँकि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं होती हैं आवश्यकरूप से इसलिए द्रव्य में होता है सब में अन्वय- उप्पादट्ठिदिभंगा हि पज्जएसु विज्जंते पज्जाया दव्वे संति तम्हा णियदं सव्वं दव्वं हवदि । अर्थ- चूँकि उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और नाश (व्यय) पर्यायों में होते हैं, पर्यायें द्रव्य में होती हैं, इसलिए आवश्यकरूप से (वह) सब द्रव्य में (ही) होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-2) (23) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदतुहिं। एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं।। समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदढेहिं संभवठिदिणास- सण्णिददेहिं (समवेद) 1/1 वि अभेद्यरूप से संयुक्त अव्यय निस्सन्देह (दव्व) 1/1 द्रव्य [(संभवठिदिणाससण्णिद +(अ हिं)] [(संभव)-(ठिदि)-(णास)- उत्पत्ति, स्थिति और (सण्णिद) वि-(अट्ठ) 3/2] विनाश नामक आशयों के साथ (एक्क) 7/1 वि एक .. . अव्यय (समय) 7/1 समय में . . अव्यय इसलिए (दव्व) 1/1 द्रव्य अव्यय निश्चय ही (तत्तिदयं) 1/1 अनि वह तीन का समूह एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं तत्तिदयं अन्वय- दव्वं खलु एक्कम्मि चेव समये संभवठिदिणाससण्णिदतुहिं समवेदं तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं । अर्थ- द्रव्य निस्सन्देह एक ही समय में उत्पत्ति (उत्पाद), स्थिति (ध्रौव्य) और विनाश (व्यय) नामक आशयों के साथ अभेद्यरूप से संयुक्त है, इसलिए वह द्रव्य (एक समय में) निश्चय ही तीन का समूह (है)। (24) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणटुं ण उप्पण्णं।। पाडुब्भवदि उत्पन्न होती है और कोई पर्याय अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि (पाडुब्भव) व 3/1 अक अव्यय (अण्ण) 1/1 सवि (पज्जाअ) 1/1 (पज्जाअ-पज्जअ) 1/1 (वय) व 3/1 अक (अण्ण) 1/1 सवि (दव्व) 6/1 . अव्यय (दव्व) 1/1 अव्यय (पणट्ठ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (उप्पण्ण) भूकृ 1/1 अनि पर्याय नष्ट होती है कोई द्रव्य की अण्णो दव्वस्स तं पि दव्वं तो भी णेव द्रव्य न ही नष्ट हुआ पणहूँ उप्पण्णं उत्पन्न हुआ ___ अन्वय- दव्वस्स अण्णो पज्जाओ पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जओ वयदि तं पि दव्वं ण उप्पण्णं णेव पणटुं । ___ अर्थ- (जब किसी) द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न होती है और (उसी द्रव्य की) कोई पर्याय नष्ट होती है, तो भी (वह) द्रव्य न उत्पन्न हुआ न ही नष्ट हुआ (वह ध्रौव्य है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘पज्जाअ' का ‘पज्जअ' किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (25) For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 12. परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिटुं। तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति। परिणमदि सयं प्राप्त करता है स्वयं दव्वं द्रव्य गुणदो गुण से गुणंतरं सदविसिटुं तम्हा गुणपज्जाया भणिया (परिणम) व 3/1 सक अव्यय (दव्व) 1/1 (गुणदो) अव्यय पंचमी अर्थक ‘दो' प्रत्यय अव्यय (गुणंतर) 2/1 (सदविसिट्ठ) भूकृ 1/1अनि अव्यय [(गुण)-(पज्जाय) 1/2] (भण-भणिय-भणिया) भूकृ 1/2 अव्यय [(दव्वं)+ (एव)+ (इति)] दव्वं (दव्व) 1/1. एव (अ) = ही इति (अ) = इस प्रकार . और अन्य गुण को अस्तित्व लक्षणयुक्त इसलिये गुण की पर्यायें . कही गई पुण तो भी दव्वमेव त्ति द्रव्य इस प्रकार अन्वय- सदविसिटुं दव्वं सयं गुणदो य गुणंतरं परिणमदि तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति। अर्थ- अस्तित्व लक्षणयुक्त द्रव्य स्वयं (ही) (एक) गुण से अन्य गुण को प्राप्त करता है, इसलिये गुण की पर्यायें कही गई हैं) तो भी (प्राप्त करनेवाली) (वह) (वस्तु) द्रव्य ही (है)। इस प्रकार (वर्णित है)। 1. 'अन्य' अर्थ में 'अंतर' समस्त पद का उत्तर पद रहता है और यह नपुंसकलिंग होता है। (26) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. ण हवदि जदि सद्दव्वं असद्धवं हवदितं कहं दव्वं। हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता।। नहीं होता है अव्यय (हव) व 3/1 अक अव्यय (सद्दव्वं) 1/1 अनि (असद्धव) 1/1 वि हवदि जदि सद्दव्वं असद्धवं यदि हवदि कहं दव्वं हवदि पुणो . अण्णं (हव) व 3/1 अक (त) 1/1 सवि अव्यय (दव्व) 1/1 (हव) व 3/1 अक अव्यय (अण्ण) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (दव्व) 1/1 अव्यय (सत्ता) 1/1 . अस्तित्वयुक्त द्रव्य ध्रुव (द्रव्य) अस्तित्व रहित होता है वह कैसे द्रव्य होता है फिर अन्य अथवा इसलिये द्रव्य वा तम्हा दव्वं स्वयं सयं सत्ता . सत्ता अन्वयः- जदि सद्दव्वं ण हवदि असद्धवं हवदि वा पुणो तं अण्णं दव्वं कहं हवदि तम्हा दव्वं सयं सत्ता। अर्थ- यदि द्रव्य अस्तित्वयुक्त नहीं होता है (तो) ध्रुव (द्रव्य) अस्तित्व रहित होता है (होगा) अथवा फिर वह (द्रव्य) अन्य (कुछ) (होता है) (होगा) (दोनों स्थितियों में वह) द्रव्य कैसे होगा? इसलिये द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व) 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) . . (27) For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 14. पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं।। पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं उपदेश अव्यय वीरस्स अण्णत्तमतब्भावो [(पविभत्त) वि-(पदेसत्त) भिन्न 1/1] प्रदेशता [(पुधत्तं)+ (इदि)] पुधत्तं (पुधत्त) 1/1 पृथकता इदि (अ) = ऐसा · · ऐसा (सासण) 1/1 निश्चय ही (वीर) 6/1 भगवान महावीर का [(अण्णत्तं)+ (अतब्भावो)] अण्णत्तं (अण्णत्त) 1/1 अन्यत्व अतब्भावो (अतब्भाव) 1/1 तादात्म्य का अभाव अव्यय नहीं (तब्भव) 2/1 तादात्म्य को (हो) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(कधं)+ (एग)] कधं (अ) = कैसे कैसे एगं (एग) 1/1 वि एकरूप/समरूप तब्भवं होदि कधमेगं अन्वय- वीरस्स हि इदि सासणं पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं अतब्भावो अण्णत्तं तब्भवं ण होदि कधमेगं। अर्थ- भगवान महावीर का निश्चय ही ऐसा उपदेश (है): (द्रव्यों में) भिन्न प्रदेशता पृथकता (कही गई है)। (प्रदेश भेद के बिना भी द्रव्य और गुण में) तादात्म्य का अभाव अन्यत्व (है)। (जब) (द्रव्य और गुण) तादात्म्य को प्राप्त नहीं करता है (तो) (द्रव्य और गुण) एकरूप/समरूप कैसे (होंगे)? (28) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो।। सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव गुण (सद्दव्वं) 1/1 अनि विद्यमान द्रव्य (सच्च) 1/1 वि अनि और विद्यमान (गुण) 1/1 [(सच्च)+ (एव)] सच्च (सच्च) 1/1 वि अनि और विद्यमान एव (अ) = भी अव्यय और [(पज्जओ)+ (इति)] पज्जओ (पज्जाअ-पज्जअ) पर्याय पज्जओ त्ति 1/1 इस प्रकार विस्तार वित्थारो जो खलु तस्स अभावो इति (अ) = इस प्रकार (वित्थार) 1/1 (ज) 1/1-सवि अव्यय (त) 6/1 सवि (अभाव) 1/1 (त) 1/1 सवि (तदभाव) 1/1 (अतब्भाव) 1/1 निश्चय ही उसका न होना वह सो तादात्म्य तदभावो अतब्भावो तादात्म्य का अभाव अन्वय- सहव्वं गुणो सच्च य पज्जओ त्ति एव सच्च वित्थारो जो तस्स तदभावो अभावो सो खलु अतब्भावो। अर्थ- द्रव्य ‘विद्यमान' (है) और गुण 'विद्यमान' (है) और पर्याय भी 'विद्यमान' (है)। इस प्रकार (विद्यमान/सत्ता का) विस्तार (है)। जो उस (द्रव्यगुण-पर्याय) का और (सत्ता का) तादात्म्य न होना (है) (वह) निश्चय ही तादात्म्य का अभाव (है) अर्थात् अन्यत्व है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (29) For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. जं दव्वं तं ण गणो जो वि गणो सोण तच्चमत्थादो। एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिटो।। दा. al. IS E F ETF PEER REET ER तच्चमत्थादो (ज) 1/1 सवि (दव्व) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (गुण) 1/1 (ज) 1/1 सवि अव्यय (गुण) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय [(तच्चं)+(अत्थादो)] तच्चं (तच्च) 1/1 अत्थादो (अत्थ)• 5/1 (एत) 1/1 सवि अव्यय (अतब्भाव) 1/1 अव्यय [(अभावो)+ (इति)] अभावो (अभाव) 1/1 इति (अ) = निश्चय ही (णिद्दिठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि द्रव्य (मूल प्रकृति) . वस्तुतः यह एसो तादात्म्य का अभाव अतब्भावो णेव अभावो त्ति नहीं अभाव निश्चय ही कहा गया णिद्दिट्ठो अन्वय- अत्थादो जं दव्वं तं गुणो ण वि जो गुणो सो तच्चं ण एसो हि अतब्भावो अभावो त्ति णेव णिहिट्ठो। ___ अर्थ- वस्तुतः जो द्रव्य (है) वह गुण नहीं (है), और जो गुण (है) वह द्रव्य नहीं (है)। यह ही तादात्मय का अभाव (है) (किन्तु) (यह) निश्चय ही अभाव नहीं कहा गया (है)। • 'अत्थ' का पंचमी में प्रयोग अव्यय के रूप में होता है। (30) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो। सदवट्ठिदं सहावे दव्व त्ति जिणोवदेसोय।। खलु दव्वसहावो परिणामो निश्चय ही द्रव्य का स्वभाव परिणमन (ज) 1/1 सवि अव्यय [(दव्व)-(सहाव) 1/1] (परिणाम) 1/1 (त) 1/1 सवि (गुण) 1/1 (सदविसिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (सदवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि वह गुणो सदविसिट्ठो सदवट्ठिदं गुण अस्तित्व लक्षणयुक्त सत्ता (अस्तित्व) में अवस्थित स्वभाव में सहावे दव्व त्ति (दव्वं ति) द्रव्य (सहाव) 7/1 [(दव्व)+ (इति)] दव्वं (दव्व) 1/1 इति (अ) = ही [(जिण)+(उवदेसो)+(अयं)] [(जिण)-(उवदेस) 1/1] अयं (इम) 1/1 सवि जिणोवदेसोयं जिन का उपदेश यह - अन्वय- दव्वसहावो जो परिणामो सो खलु सदविसिट्ठो गुणो सदवट्ठिदं दव्यं त्ति सहावे अयं जिण उवदेसो। अर्थ- द्रव्य का स्वभाव जो परिणमन (है) वह निश्चय ही अस्तित्व लक्षणयुक्त गुण है (तथा) सत्ता (अस्तित्व) में अवस्थित द्रव्य ही स्वभाव में (अवस्थित) (है)। यह जिन का उपदेश (है)। यहाँ पाठ होना चाहिए ‘दव्वं ति'। प्रवचनसार (खण्ड-2) (31) For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 18. णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओत्तीह वा विणा दव्वं। दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता। णत्थि गुणो त्ति गुण कोई-कोई पज्जाओ तीह अव्यय नहीं है [(गुणो)+ (इति)] गुणो (गुण) 1/1 इति (अ) = निश्चय ही निश्चय ही अव्यय तथा . अव्यय • कोई .. [(पज्जाओ)+ (इति)+ (इह)]. (पज्जाअ) 1/1 पर्याय इति (अ) = निश्चय ही निश्चय ही इह (अ) = इस लोक में इस लोक में अव्यय पादपूरक अव्यय बिना (दव्व) 2/1 द्रव्य (दव्वत्त ) 1/1 द्रव्यता अव्यय चूँकि (भाव) 1/1 वास्तविक सत्य/परमार्थ अव्यय इसलिए (दव्व) 1/1 अव्यय स्वयं (सत्ता) 1/1 सत्ता 3.4 विणा दव्वं दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं द्रव्य सत्ता अन्वय- इह विणा दव्वं कोई गुणो त्ति व पज्जाओ त्ति णत्थि पुण दव्वत्तं भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता वा। ___ अर्थ- इस लोक में बिना द्रव्य के निश्चय ही कोई गुण तथा निश्चय ही (कोई) पर्याय नहीं है। चूँकि द्रव्यता वास्तविक सत्य/परमार्थ (है) इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व)(है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु इ--ई किया गया है। 2. बिना' के साथ द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (32) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि।। ऐसा स्वभाव के कारण द्रव्य एवंविहं (एवंविह) 1/1 वि सहावे (सहाव) 7/1 दव्वं (दव्व) 1/1 दव्वत्थपज्जयत्थेहिं [(दव्वत्थ)-(पज्जयत्थ) 3/2 वि] सदसब्भावणिबद्धं [(सदसब्भाव) वि अनि - (णिबद्ध) भूक 2/1 अनि ] पादुब्भावं (पादुब्भाव) 2/1 अव्यय लभदि (लभ) व 3/1 सक द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के साथ सत्युक्त तथा असत्युक्त सदा उत्पत्ति को सदैव करता है अन्वय- एवंविहं दव्वं सहावे सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। अर्थ- ऐसा द्रव्य (परिणमन) स्वभाव के कारण सत्युक्त तथा असत्युक्त उत्पत्ति को सदैव करता है। (यह दोनों प्रकार की उत्पत्ति) द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के साथ (अविरोधरूप में) (रहती है)। (उदाहरणार्थ परिणमन स्वभाव के कारण सोना रूपी द्रव्य जब कंकण को उत्पन्न करता है तो द्रव्यदृष्टि से पूर्व में विद्यमान सोना बना रहता है और पर्यायदृष्टि से पूर्व में अविद्यमान कंकण उत्पन्न होता है)। 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) सम्पादक द्वारा अनूदित नोटः प्रवचनसार (खण्ड-2) (33) For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 20. जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो। किं दव्वत्तं पजहदि ण चयदि अण्णो कहं हवदि।। जीवो होगा भविस्सदि णरोऽमरो वा अन्य .. भवीय (जीव) 1/1 जीव . (भवं) वकृ 1/1 अनि (परिणमित) होता हुआ (भव) भवि 3/1 अक [(णरो)+(अमरो)] णरो (णर) 1/1 ... मनुष्य अमरो (अमर) 1/1 देव .. अव्यय अथवा (पर) 1/1 वि . (भव-भविय-भवीय) संकृ होकर अव्यय अव्यय क्या (दव्वत्त) 2/1 द्रव्यता को (पजह) व 3/1 सक , छोड़ देता है अव्यय (चय) व 3/1 सक छोड़ता है (अण्ण) 1/1 सवि अन्य अव्यय कैसे (हव) व 3/1 अक होता है (होगा) पुणो किन्तु दव्वत्तं पजहदि ण नहीं चयदि अण्णो कह हवदि अन्वय- भवं जीवो णरोऽमरो वा परो भविस्सदि पुणो भवीय किं दव्वत्तं पजहदि ण चयदि अण्णो कहं हवदि। अर्थ- (परिणमित) होता हुआ जीव मनुष्य, देव अथवा अन्य (नारकी, तिर्यंच) होगा, किन्तु (मनुष्य, देव आदि) होकर क्या (वह) द्रव्यता को छोड़ देता है? (यदि) नहीं छोड़ता है (तो) (वह) अन्य कैसे होगा? अर्थात् वह द्रव्यदृष्टि से जीव रहेगा। 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। (34) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि।। मणुवो नहीं हवदि देवो माणुसो (मणुव) 1/1 मनुष्य अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है (देव) 1/1 देव (देव) 1/1 देव अव्यय तथा (माणुस) 1/1 मनुष्य अव्यय पादपूर्ति (सिद्ध) 1/1 अव्यय या अव्यय । इस प्रकार (अहोज्ज) वकृ 1/1 न होता हुआ [(अणण्ण) वि-(भाव) 2/1] अभिन्न भाव को अव्यय कैसे (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है (करेगा) सिद्ध सिद्धो वा . एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि __ अन्वय- मणुवो देवो ण हवदि वा देवो माणुसो वा सिद्धो एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि व। अर्थ- (पर्यायदृष्टि से) मनुष्य देव नहीं होता है तथा देव मनुष्य या सिद्ध (नहीं) (होता है)। इस प्रकार न होता हुआ (एक पर्याय से दूसरी पर्याय में) अभिन्न भाव को कैसे प्राप्त करेगा? 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (35) . For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्टिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो।। दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं पज्जयट्ठिएण पुणो हवदि (दव्वट्ठिअ) 3/1 वि द्रव्यार्थिक (नय) से (सव्व) 1/1 सवि सब (कोई भी) (दव्व) 1/1 द्रव्य . (त) 1/1 सवि वह (पज्जयट्ठिअ) 3/1 वि पर्यायार्थिक (नय) से अव्यय क्योंकि (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय [(अण्णं)+(अण)+ (अण्णं)] अण्णं (अण्ण) 1/1 सविभिन्न अण (अ) = नहीं नहीं अण्णं (अण्ण) 1/1 सवि भिन्न (तक्काल) 7/1 उस अवसर पर (तम्मयत्त) 5/1 . एकरूपता के कारण और .. अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो अन्वय- दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं अण्णं अण हवदि य पज्जयट्ठिएण तं अण्णं पुणो तक्काले तम्मयत्तादो। अर्थ- द्रव्यार्थिक (नय) से (एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में) कोई भी द्रव्य भिन्न नहीं होता है और पर्यायार्थिक (नय) से वह (द्रव्य) (पर्यायों की भिन्नता के कारण) भिन्न (होता है) क्योंकि (वह द्रव्य उसी पर्याय से) उस अवसर पर एकरूपता के कारण (भिन्न कहा जाता है)। 1. 'कारण' व्यक्त करनेवाले शब्दों में पंचमी का प्रयोग होता है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 42) (36) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं। पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा।। अत्थि त्ति णत्थि त्ति नास्ति [(अत्थि)+ (इति)] अत्थि (अ) = अस्ति अस्ति इति (अ) = ही ही अव्यय और [(णत्थि)+ (इति)] णत्थि (अ) = नास्ति इति (अ) = ही अव्यय और (हव) व 3/1 अक होता है [(अवत्तव्वं)+ (इदि)] अवत्तव्वं (अवत्तव्व) 1/1 वि अवक्तव्य इदि (अ) = ही अव्यय (दव्व) 1/1 द्रव्य (पज्जाय) 3/1 प्रकार से हवदि अवत्तव्वमिदि. और पुणो दव्वं पज्जायेण अव्यय केण (क) 3/1 सवि किसी अव्यय तदुभयमादिट्ठमण्णं [(तदुभयं)+(आदि8)+(अण्णं)] तदुभयं (तदुभयं)1/1 सवि अनि वह दोनों आदिडं (आदिट्ठ)भूकृ 1/1 अनि कहा गया अण्णं (अण्ण) 1/1 सवि अन्य अव्यय तथा वा ... प्रवचनसार (खण्ड-2) (37) For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय- दव्वं केण पज्जायेण अत्थि त्ति य णत्थि त्ति अवत्तव्वमिदि हवदि पुणो तदुभयं दु वा अण्णं वि आदिट्ठ। अर्थ- (अतः) द्रव्य किसी प्रकार से (द्रव्यार्थिकनय से) ‘अस्ति' ही (है) और (द्रव्य) (किसी प्रकार से) (पर्यायार्थिकनय से) नास्ति' ही (है) अर्थात् वह द्रव्य पर्याय से एकरूप होने के कारण पर्यायरूप हो गया। (दोनों को एक साथ कहना चाहें तो) (वह द्रव्य) अवक्तव्य' ही होता है और (अलग-अलग कहना चाहें तो) वह (द्रव्य) दोनों (अस्ति-नास्ति) ही (है) तथा अन्य (तीन प्रकार से) भी कहा गया (है) अर्थात अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य। नोटः सम्पादक द्वारा अनूदित (38) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. सो णत्थि कोई' कोइ ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता किरिया हि णत्थि Arc - अफला धम्मो दि णिप्फलो परमो एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ।। नोट: [(एसो) + (इति)] एसो (एत) 1/1 सवि इति (अ) = क्योंकि अव्यय अव्यय अव्यय (fanften) 1/1 [(सहाव) - (णिव्वत्त) भूकृ 1/1 अनि] ( किरिया ) 1/1 अव्यय अव्यय (अफल) 1 / 1 वि (धम्म ) 17 1 अव्यय प्रवचनसार ( खण्ड - 2) (णिप्फल) 1/1 वि (परम) 1 / 1 वि सम्पादक द्वारा अनूदित यह क्योंकि अन्वय एसो त्ति कोई णत्थि सहावणिव्वत्ता किरिया ण णत्थि जदि परमो धम्मो णिप्फलो किरिया हि अफला णत्थि । अर्थ - ( कहना कि ) 'यह' (नित्य है) (किन्तु) कोई (मनुष्यादि पर्याय) (नित्य) नहीं है क्योंकि ( इन पर्यायों के) स्वरूप से उत्पन्न ( राग-द्वेषात्मक) क्रिया सदा (ही) (है)। (अब) यदि परमधर्म ( वीतराग भाव से उत्पन्न क्रिया) (संसारी) फलरहित ( है ) (तो) (राग-द्वेषात्मक) क्रिया निश्चय ही ( संसारी) फलरहित नहीं (हो सकती) है। For Personal & Private Use Only नहीं है कोई सदा क्रिया स्वरूप से उत्पन्न क्रिया निश्चय ही नहीं है फलरहित धर्म यदि फलरहित परम (39) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. कम्मंणामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि।। कम्म णामसमक्खं कर्म नामसंज्ञावाला/नामक सभावमध स्वभाव को. अब आत्मा के स्वभाव से अप्पणो सहावेण अभिभूय णरं तिरियं (कम्म) 1/1 (णामसमक्ख) 1/1 वि [(सभावं)+(अध)] सभावं (सभाव) 2/1 अध (अ) = अब (अप्प) 6/1 . (सहाव) 3/1 (अभिभूय) संकृ अनि (णर) 2/1 (तिरिय) 2/1 (णेरइय) 2/1 अव्यय (सुर) 2/1 (कुण) व 3/1 सक आच्छादित करके . मनुष्य तिर्यंच णेरइयं नारकी अथवा . कुणदि बनाता है अन्वय- अध णामसमक्खं कम्मं सहावेण अप्पणो सभावं अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि। ___ अर्थ- अब नामसंज्ञावाला/नामक कर्म (अपने) स्वभाव से आत्मा के (शुद्ध) स्वभाव को आच्छादित करके मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव (पर्याय) बनाता है। (40) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता । ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ।। णरणारयतिरियसुरा [(णर) - (णारय) - (तिरिय ) - (सुर) 1/2] (जीव) 1/2 अव्यय जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता 5 कुछ नट लद्धसहावा परिणममाणा सम्माणि [(णामकम्म) - (णिव्वत्त) भूक 1/2 अनि ] अव्यय अव्यय (त) 1 / 2. सवि [(लद्ध) भूक अनि ( सहाव ) 1 / 2 ] (परिणम) वकृ 1/2 ( स-कम्म) 1/2 वि मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देव जीव निश्चय ही कर्म से रचे गये नहीं चूँकि वे प्राप्त किया गया For Personal & Private Use Only स्वभाव परिणमन करते हुए कर्मों सहित अन्वंय- णरणाऱयतिरियसुरा हि णामकम्मणिव्वत्ता सकम्माणि - परिणममाणा ते जीवा खलु लद्धसहावा ण । अर्थ- चूँकि मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (निश्चय ही ) नामकर्म से रचे गये (हैं), (इसलिए) कर्मों सहित परिणमन करते हुए वे जीव (ऐसे हैं) (जिनके द्वारा) (शुद्ध) स्वभाव निश्चय ही प्राप्त नहीं किया गया (है)। - प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) (41) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 27. जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुब्भवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा। जायदि उत्पन्न होता है णेव न ही णस्सदि खणभंगसमुब्भवे जणे कोई-कोई Fg (जा) व 3/1 अक 'य'विकरण अव्यय अव्यय (णस्स) व 3/1 अक [(खण)-(भंग)(समुब्भव) 7/1 वि] (जण) 7/1 अव्यय (ज) 1/1 सवि अव्यय (भव) 1/1 (त) 1/1 सवि (विलअ) 1/1 [(संभवविलया)+ (इति) [(संभव)-(विलय) 1/2] इति (अ) = इस प्रकार (त) 1/1 सवि अव्यय नष्ट होता है क्षण में विनाश और उत्पन्न होनेवाले लोक में कोई . जो .. निश्चय ही उत्पत्ति वह विनाश विलओ संभवविलय त्ति उत्पत्ति और नाश इस प्रकार णाणा अनेक अन्वय- खणभंगसमुब्भवे जणे कोई णेव जायदि ण णस्सदि जो भवो सो हि विलओ ते संभवविलय त्ति णाणा। अर्थ- क्षण में विनाश और उत्पन्न होनेवाले (इस) लोक में कोई (भी) (द्रव्य) न ही उत्पन्न होता है (और) न नष्ट होता है अर्थात् इन दोनों अवस्थाओं में द्रव्य नित्य ही है। (इस लोक में) जो (पर्याय)उत्पत्ति (रूप) (है) वह निश्चय ही विनाश (रूप) (है)। इस प्रकार वे उत्पत्ति (उत्पाद) और नाश (व्यय) अनेक (हैं) अर्थात् पर्यायार्थिक दृष्टि की अपेक्षा उत्पाद और व्यय अनेक हैं। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु इ-ई किया गया है। (42) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. तम्हा दुणत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे। संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स।। इस कारण ही नहीं है कोई स्वभाव में अवस्थित तम्हा दु अव्यय णत्थि अव्यय कोई-कोई अव्यय सहावसमवट्टिदो त्ति [(सहावसमवट्टिदो)+ (इति)] [(सहाव)-(समवट्ठिद) भूक 1/1 अनि] इति (अ) = पादपूरक संसारे (संसार) 7/1 . संसारो (संसार) 1/1 पुण अव्यय . किरिया (किरिया) 1/1 संसरमाणस्स (संसर) वकृ 6/1 दव्वस्स (दव्व) 6/1 पादपूरक संसार में संसार और क्रिया परिभ्रमण करते हुए द्रव्य की - अन्वय- तम्हा दु. संसारे कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति णत्थि पुण संसरमाणस्स दव्वस्स किरिया संसारो। अर्थ- इस कारण ही संसार में कोई (भी) (जीव) स्वभाव में अवस्थित नहीं है और परिभ्रमण करते हुए (चारों गतियों में भ्रमण करते हुए) (जीव) द्रव्य की क्रिया (ही) संसार (है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु इ-ई किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (43) For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 29. आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं। तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो।। आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं तत्तो सिलिसदि (आद) 1/1 आत्मा [(कम्म)-(मलीमस-मलिमस) कर्मों से मलिन 1/1 वि] (परिणाम) 2/1 परिणाम को (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(कम्म)-(संजुत्त) कर्मों से युक्त भूकृ 2/1 अनि] (त) 5/1 सवि उससे (सिलीस-सिलिस) बंधता/चिपकता है व 3/1 अक (कम्म) 1/1 कर्म अव्यय इसलिए (कम्म) 1/1 अव्यय . ही (परिणाम) 1/1 परिणाम कम्म तम्हा कम्म कर्म परिणामो अन्वय- आदा कम्ममलिमसो कम्मसंजुत्तं परिणाम लहदि तत्तो कम्मं सिलिसदि तम्हा परिणामो तु कम्म। अर्थ- (चूँकि) आत्मा (पुद्गल) कर्मों से मलिन है। (इसलिए) कर्मों से युक्त (रागादिक) (अशुद्ध) परिणाम को प्राप्त करता है (तब) उस (अशुद्ध परिणाम) से (पुद्गल) कर्म (आत्मा से) बंधता/चिपकता है इसलिए (अशुद्ध) परिणाम ही (भाव) कर्म (है)। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ई' का 'ई' हुआ है। (44) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होदि क्रिया 30. परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता।। परिणामो (परिणाम) 1/1 परिणाम सयमादा [(सयं)+(आदा)] सयं (अ) = स्वयं स्वयं आदा (आद) 1/1 आत्मा सा (ता) 1/1 सवि वह पुण अव्यय चूँकि किरिय. त्ति [(किरिया)+ (इति)] किरिया (किरिया) 1/1 क्रिया इति (अ) = इसलिए इसलिए (हो) व 3/1 अक होती है जीवमया (जीवमर्यजीवमया) 1/1 वि आत्मा से युक्त किरिया (किरिया) 1/1 * कम्म त्ति [(कम्मो )+ (इति)] (मूल शब्द) कम्मो (कम्म) 1/1 इति (अ) = अतः अतः मदा (मद) भूकृ.1/1 अनि मानी गई तम्हा अव्यय इस कारण कम्मस्स (कम्म) 6/1 कर्म का अव्यय नहीं अव्यय निश्चय ही .. (कत्तु) 1/1 वि कर्ता अन्वय- परिणामो सयमादा पुण सा किरिय त्ति जीवमया होदि किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स कत्ता दण। ... अर्थ- (यह) (अशुद्ध) परिणाम स्वयं आत्मा (कहा गया है)। चूँकि वह (अशुद्ध). (परिणाम से उत्पन्न) क्रिया (आत्मा से की जाती है) इसलिए आत्मा से युक्त होती है। अतः (अशुद्ध) (परिणाम से उत्पन्न) क्रिया (भी) (भाव) कर्म मानी गई है (जिसका कर्ता आत्मा ही है)। इस कारण (द्रव्य/पुद्गल) कर्म का कर्ता निश्चय ही (आत्मा) नहीं (हो सकता है)। कर्म दु कत्ता प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) संयुक्त अक्षर के कारण यहाँ किरिया-किरिय हुआ है। नोटः सम्पादक द्वारा अनूदित प्रवचनसार (खण्ड-2) (45) . For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा।। परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा परिणमन करता है चेतना के रूप में आत्मा और . • चेतना .. . तीन प्रकार की मानी गई .. (परिणम) व 3/1 अक (चेदणा) 7/1 (आद) 1/1 अव्यय (चेदणा) 1/1 [(तिधा)+(अभिमदा)] [(तिधा) अ-(अभिमदा). भूकृ 1/1 अनि] (ता) 1/1 सवि अव्यय (णाण) 7/1 (कम्म) 7/1 (फल) 7/1 अव्यय (कम्मणो) 6/1 अनि (भण-भणिद-भणिदा) भूकृ 1/1 ज्ञान में कम्मे फलम्मि वा फल में और कर्म के कही गई कम्मणो भणिदा अन्वय- आदा चेदणाए परिणमदि पुण सा चेदणा तिधाभिमदा पुण णाणे कम्मे वा कम्मणो फलम्मि भणिदा। ___ अर्थ- आत्मा चेतना के रूप में परिणमन करता है और वह चेतना तीन प्रकार की मानी गई (है)। (वह) फिर ज्ञान में (हो) (तो) (ज्ञान चेतना), कर्म में (हो) (तो) (कर्म चेतना) और कर्म के फल में (हो) (तो) (कर्मफल चेतना) कही गई (है)। (46) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्ध। तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा। णाणं अट्ठवियप्पो कम्म जीवेण ज्ञान पदार्थ का विचार कार्य जीव के द्वारा प्रारम्भ किया गया समारद्धं तमणेगविधं वह अनेक प्रकार से (णाण) 1/1 [(अट्ठ)-(वियप्प) 1/1] (कम्म) 1/1 (जीव) 3/1 (ज) 1/1 सवि (समारद्ध) भूकृ 1/1 अनि [(तं)+ (अणेगविध)] तं (त) 1/1 सवि अणेगविधं (अणेगविधं) द्वितीयार्थक अव्यय (भण-भणिद) भूकृ 1/1 [(फलं)+ (इति)] फलं (फल) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार (सोक्ख) 1/1 अव्यय (दुक्ख) 1/1 अव्यय भणिदं फलं ति कहा गया सोक्खं फल इस प्रकार सुख और दुःख अथवा दुक्खं वा. अन्वय- अट्टवियप्पो णाणं जीवेण जं कम्मं समारद्धं तं अणेगविधं भणिदं व फलं ति सोक्खं वा दुक्खं। अर्थ- पदार्थ का विचार ज्ञान (है)। जीव के द्वारा जो कार्य प्रारम्भ किया गया (है) वह अनेक प्रकार से कहा गया (है) और (उस) (कार्य का) फल सुख अथवा दुःख (है)। इस प्रकार (वर्णित) (है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (47) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. ( अप्प ) 1 / 1 ( परिणामप्प ) 1 / 1 वि (परिणाम) 1 / 1 णाणकम्मफलभावी [ ( णाण) - (कम्म) - (फल) - भावि) 1 / 1 वि] अव्यय ( णाण) 1 / 1 (कम्म) 1/1 (फल) 1/1 अव्यय (आद) 1/1 (मुण) विधि 1/1 सक अप्पा परिणामप्पा परिणामो तम्हा णणं कम्मं फलं च अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी । तम्हा णाणं कम्पं फलं च आदा मुणेदव्वो ।। आदा मुणेदव्वो णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो । (48) आत्मा परिणाम स्वभाववाला परिणाम ज्ञान-कर्म-कर्मफलरूप में घटित इसलिए For Personal & Private Use Only ज्ञान कर्म अन्वय- अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी तम्हा फल और अर्थ - आत्मा परिणाम स्वभाववाला है। परिणाम ज्ञान-कर्म-कर्मफलरूप में घटित (है)। इसलिए ज्ञान - कर्म और कर्मफल आत्मा समझा जाना चाहिये। आत्मा समझा जाना चाहिये प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध।। कत्ता करणं कम्म कर्म फलं फल और अप्प त्ति EEEEEEEEER णिच्छिदो समणो परिणमदि णेव (कत्तु) 1/1 वि करनेवाला (करण) 1/1 साधन (कम्म) 1/1 (फल) 1/1 अव्यय [(अप्पा) + (इति)] अप्पा (अप्प) 1/1 आत्मा इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (णिच्छ--णिच्छिद) भूकृ 1/1 निश्चय किया हुआ (समण) 1/1 श्रमण (परिणम) व 3/1 सक अपनाता है अव्यय . नहीं (अण्ण) 2/1 सवि अन्य को अव्यय (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (लह) व 3/1 सक प्राप्त कर लेता है (सुद्ध) 2/1 वि. शुद्ध अण्णं यदि जदि अप्पाणं लहदि अन्वयं- कत्ता करणं कम्मं च फलं अप्प त्ति णिच्छिदो समणो . जदि अण्णं णेव परिणमदि सुद्धं अप्पाणं लहदि। अर्थ- (जो) करनेवाला (है), (जो) (करने का) साधन (है), (जो) कर्म (किया जाय) और (जो कर्म करने का) फल (है) (वह) आत्मा (है)। इस प्रकार निश्चय किया हुआ श्रमण यदि (इससे) अन्य (दृष्टि) को नहीं अपनाता (है) (तो) (वह) शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता (है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (49) . For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवजोगमओ। पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि अज्जीवं।।.. द्रव्य १) जीव जीव से वियुक्त जीव फिर दव्वं (दव्व) 1/1 जीवमजीवं [(जीवं)+(अजीवं)] जीवं (जीव) 1/1 अजीवं (अजीव) 1/1 वि जीवो (जीव) 1/1 पुण अव्यय चेदणोवजोगमओ [(चेदणा)+ (उवजोगमओ)] [(चेदणा)-(उवजोगमअ) 1/1 वि] पोग्गलदव्वप्पमुहं [(पोग्गल)-(दव्वप्पमुह) 1/1 वि] अचेदणं (अचेदण) 1/1 वि हवदि (हव) व 3/1 अक अज्जीवं (अज्जीव) 1/1 वि चेतनामय और उपयोगमय पुद्गल द्रव्य-सहित चेतना-रहित होता है अजीव अन्वय- दव्वं जीवमजीवं पुण जीवो चेदणोवजोगमओ पोग्गलदव्वप्पमुहं अज्जीवं अचेदणं हवदि। अर्थ- द्रव्य जीव और जीव से वियुक्त (अजीव) (दो प्रकार का है)। फिर (इन दोनों में से) जीव (द्रव्य) चेतनामय और उपयोगमय (भावरूप) (है) (तथा) पुद्गल द्रव्य-सहित अजीव (द्रव्य-समूह) चेतना-रहित होता है। (50) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्डो। वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु।। पोग्गलजीवणिबद्धो [(पोग्गल)-(जीव)-(णिबद्ध) पुद्गल और जीव से भूकृ 1/1 अनि] युक्त धम्माधम्मत्थिकाय- [(धम्म)+(अधम्म)+(अस्थिकाय)+ कालड्डो (कालड्डो)] [(धम्म)-(अधम्म)- धर्मास्तिकाय, (अत्थिकाय) अधर्मास्तिकाय और (कालड्ड) 1/1 वि] काल-सहित वट्टदि (वट्ट) व 3/1 अक होता है आगासे (आगास) 7/1 आकाश में (ज) 1/1 सवि लोगो (लोग) 1/1 लोक (त) 1/1 सवि वह सव्वकाले [(सव्व) सवि-(काल) 7/1] सर्वकाल में अव्यय . जो ओ सो . दु अन्वय- जो आगासे धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो पोग्गलजीवणिबद्धो वट्टदि सो दु सव्वकाले लोगो। अर्थ- जो (क्षेत्र) आकाश (द्रव्य) में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल-सहित पुद्गल और जीव से युक्त है वह ही सर्वकाल (अतीत, अनागत और वर्तमान) में 'लोक' (कहा जाता है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (51) For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स। परिणामादो जायंते संघादादो व भेदादो।। उप्पादद्विदिभंगा [(उप्पाद)-(द्विदि)-(भंग) 1/2] उत्पाद, स्थिति और नाश पुद्गल और जीव से संबंधित लोक में परिणमन से पोग्गलजीवप्पगस्स' [(पोग्गल)-(जीवप्पग)। 6/1 वि] लोगस्स (लोग) 6/1 परिणामादो (परिणाम) 5/1 जायते (जा) व 3/2 अक 'य' विकरण संघादादो (संघाद) 5/1 अव्यय भेदादो (भेद) 5/1 उत्पन्न होते हैं संयोजन से और वियोजन से अन्वय- पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स परिणामादो संघादादो व भेदादो उप्पाददिदिभंगा जायते। अर्थ- पुद्गल और जीव से संबंधित लोक में परिणमन से, संयोजन से और वियोजन से उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और नाश (व्यय) उत्पन्न होते हैं अर्थात् पुद्गल और जीव में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य दो प्रकार से होते हैं-(1) परिणमन से (2) संयोजन और वियोजन से। उदाहरणार्थ- (1) बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में पुद्गल-जीव में परिणमन से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है। (2) लोक में विभिन्न प्रकार के जीवों के संयोजन और वियोजन से तथा पुद्गल परमाणुओं के आपस में संयोजन और वियोजन से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) सम्पादक द्वारा अनूदित नोटः (52) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं। तेऽतब्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेया।। लक्षणों से जिन द्रव्य दव्वं लिंगेहि (लिंग) 3/2 जेहिं (ज) 3/2 सवि (दव्व) 1/1 जीवमजीवं [(जीव)+(अजीवं)] जीवं (जीव) 1/1 अजीवं (अजीव) 1/1 वि अव्यय हवदि (हव) व 3/1 अक विण्णादं (विण्णाद) भूकृ 1/1 अनि तेऽतब्भावविसिट्ठा [(ते)+(अतब्भावविसिट्ठा)] . [(ते)-(अतब्भाव)- (विसिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि] मुत्तामुत्ता.. [(मुत्त)+(अमुत्ता)] [(मुत्त)-(अमुत्त) 1/2 वि] गुणा (गुण) 1/2 णेया ... (णेय) विधिकृ 1/2 अनि जीव जीव से वियुक्त/रहित और होता है ज्ञात वे भिन्न लक्षणों से युक्त मूर्त और अमूर्त समझे जाने चाहिये अन्वय- जेहिं लिंगेहिं जीवं च अजीवं दव्वं विण्णादं हवदि तेऽतब्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेया। अर्थ- जिन लक्षणों से जीव और जीव से वियुक्त/रहित द्रव्य ज्ञात होते हैं, वे भिन्न लक्षणों से युक्त मूर्त और अमूर्त गुण समझे जाने चाहिये। प्रवचनसार (खण्ड-2) (53) For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। दव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा॥ मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा दव्वाणममुत्ताणं (मुत्त) 1/2 वि मूर्त [(इंदिय)-(गेज्झ) इंद्रियों से ग्रहण करने विधिकृ 1/2 अनि] • योग्य [(पोग्गल)-(दव्वप्पग)- पुद्गल द्रव्यों से 1/2 वि] संबंधित [(अणेग) वि-(विध) 1/2] अनेक प्रकार के [(दव्वाणं)+(अमुत्ताणं)] दव्वाणं (दव्व) 6/2 द्रव्यों के अमुत्ताणं (अमुत्त) 6/2 वि अमूर्त (गुण) 1/2 गुण (अमुत्त) 1/2 वि अमूर्त (मुण) विधिकृ 1/2 समझे जाने चाहिये गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा अन्वय- अमुत्ताणं दव्वाणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा अणेगविधा पोग्गलदव्वप्पगा मुत्ता इंदियगेज्झा। अर्थ- अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त समझे जाने चाहिये। (वे) अनेक प्रकार के (हैं)। पुद्गल द्रव्यों से संबंधित (जो) मूर्त (गुण) (होते हैं) (वे) इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य (हैं)। (54) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स सुहमादो। पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो। वण्णरसगंधफासा विज्जते पोग्गलस्स सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स [(वण्ण)-(रस)-(गंध)- (फास) 1/2] (विज्ज) व 3/2 अक (पोग्गल) 6/1 (सुहुम) 5/1 वि [(पुढवि)-(परियंत) 6/1] अव्यय (सद्द) 1/1 (त) 1/1 सवि (पोग्गल) 1/1 (चित्त) 1/1 वि वर्ण, रस, गंध और स्पर्श विद्यमान होते हैं पुद्गल में सूक्ष्म से महास्थूल तक के और शब्द मो वह पुद्गल पोग्गलो चित्तो अनेक प्रकार का अन्वय- सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स पोग्गलस्स वण्णरसगंधफासा विज्जते य चित्तो सद्दो सो पोग्गलो। अर्थ- सूक्ष्म (पुद्गल परमाणु) से महास्थूल तक के पुद्गल (द्रव्य) में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श (गुण) विद्यमान होते हैं, और (जो) अनेक प्रकार का (ध्वनि उत्पादक) शब्द (है) अर्थात् अनेक प्रकार की ध्वनि (है) वह पुद्गल (पर्याय) (है) (न कि पुद्गल का गुण)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) प्रवचनसार (खण्ड-2) (55) For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा।। आगासस्सवगाहो [(आगासस्स)+ (अवगाहो)] आगासस्स (आगास) 6/1 अवगाहो (अवगाह) 1/1 आकाश का अवगाहन (जगह देने का कारण) धर्म द्रव्य का गमन में कारणता धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं धम्मेदरदव्वस्स धर्म से भिन्न . द्रव्य का [(धम्म)-(इव्व) 6/1] [(गमण)-(हेदुत्त) 1/1] [(धम्म)+ (इदरदव्वस्स)] [(धम्म)-(इदर) वि(दव्व) 6/1] अव्यय (गुण) 1/1 अव्यय [(ठाण)-(कारणदा) 1/1] ' और गुणो और पुणो ठाणकारणदा स्थिति में कारणता अन्वय- आगासस्सवगाहो दु धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं पुणो धम्मेदरदव्वस्स गुणो ठाणकारणदा। अर्थ- आकाश (द्रव्य) का (गुण) अवगाहन अर्थात् सब द्रव्यों को जगह देने का कारण (है) और धर्म द्रव्य का (गुण) गमनमें कारणता और धर्म से भिन्न अर्थात् अधर्म द्रव्य का गुण स्थिति (ठहरने) में कारणता (है)। (56) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं।। कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो (काल) 6/1 काल का (वट्टणा) 1/1 परिणमन में कारण अव्यय वाक्यालंकार [(गुण)+ (उवओगो)+(इति)] [(गुण)-(उवओग) 1/1] गुण, उपयोग इति (अ) = निश्चय ही निश्चय ही (अप्प) 6/1 . आत्मा का (भण→भणिद) भूक 1/1 कहा गया (णेय) विधिकृ 1/2 अनि समझे जाने चाहिये (संखेव) 5/1 संक्षेप से (गुण) 1/2 गुण अव्यय [(मुत्ति)-(प्पहीण) 6/2 वि] मूर्ति-रहित णेया संखेवादो गुणा मुत्तिप्पहीणाणं अन्वय- कालस्स वट्टणा से अप्पणो गुणोवओगो त्ति भणिदो संखेवादो हि गुणा मुत्तिप्पहीणाणं णेया। अर्थ- (तथा) काल (द्रव्य) का (गुण) परिणमन में कारण है। आत्मा का गुण निश्चय ही उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) कहा गया (है)। संक्षेप से (ये) ही गुण मूर्तिरहित (अमूर्त) (द्रव्यों) के समझे जाने चाहिये। प्रवचनसार (खण्ड-2) ___(57) For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगा सपदेसेहिं असंखा णत्थि देस जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं । सपदेसेहिं असंखा णत्थि पदेस त्ति कालस्स ।। कालस्स (58) (जीव) 1/2 [ ( पोग्गल ) - (काय) 1 / 2] [ ( धम्म) + (अधम्मा)] [ ( धम्म ) - ( अधम्म) 1 / 2] अव्यय अव्यय ( आगास) 1 / 1 (स-पदेस) 3 / 2 वि (असंख) 1/2 वि अव्यय [(पदेसो) + (इति)] पदेसो (पदेस) 1/1 इति (अ) (काल) 6/1 = जीव पुद्गल - राशि For Personal & Private Use Only धर्म तथा अधर्म और और अन्वय- जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो आगासं सपदेसेहिं य असंखा कालस्स पदेस त्ति णत्थि । अर्थ - जीव, पुद्गल-राशि, धर्म, अधर्म और आकाश - (ये) प्रदेशसहित (होते हैं)। (वे) असंख्य (होते हैं) और काल के ( अनेक) प्रदेश नहीं है अर्थात् एक प्रदेश है। आकाश प्रदेश सहित असंख्य नहीं है प्रदेश पादपूरक काल के प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहि आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा।। लोगालोगेसु लोक और अलोक में आकाश णभो धम्माधम्मेहि आददो लोगो (लोग)+(अलोगेसु)] [(लोग)-(अलोग) 7/2] (णभ) 1/1 [(धम्म)+(अधम्मेहि)] [(धम्म)-(अधम्म) 3/2] (आदद) भूकृ 1/1 अनि (लोग) 1/1 (सेस) 2/2 वि. अव्यय (काल) 1/1 (जीव) 1/2 अव्यय (पोग्गल) 1/2 (सेस) 1/2 वि धर्म और अधर्म से व्याप्त लोक शेषों को अवलम्बन करके काल पडुच्च कालो जीवा जीव पुण और पोग्गला पुद्गल शेष ___ अन्वय- णभो लोगालोगेसु लोगो धम्माधम्मेहि आददो सेसा जीवा पुण पोग्गला कालो सेसे पडुच्च। — अर्थ- आकाश (द्रव्य) लोक और अलोक में (रहता है)। लोक धर्म और अधर्म से व्याप्त (है)। शेष (द्रव्य) जीव और पुद्गल (भी) (लोक में) (है)। काल शेषों (जीव और पुद्गल के परिवर्तन) को अवलम्बन करके (जाना जाता प्रवचनसार (खण्ड-2) (59) For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं। ___ अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो। जध णभप्पदेसा तध प्पदेसा हवंति सेसाणं अपदेसो अव्यय . (त) 1/2 सवि [(णभ)-(प्पदेस) 1/2] अव्यय (प्पदेस) 1/2 . (हव) व 3/2 अक (सेस) 6/2 वि (अपदेस) 1/1 वि (परमाणु) 1/1 (त) 3/1 सवि [(पदेस)+ (उब्भव)]. [(पदेस)-(उब्भव) 1/1] (भण--भणिद) भूकृ 1/1 जैसे वे. आकाश के प्रदेश वैसे ही . प्रदेश होते हैं ... शेषों के प्रदेशरहित . परमाणु उससे . परमाणू पदेसुब्भवो प्रदेशों का उद्भव कहा गया भणिदो अन्वय- जध ते णभप्पदेसा तध सेसाणं प्पदेसा हवंति परमाणू अपदेसो तेण पदेसुब्भवो भणिदो। अर्थ- जैसे वे (कहे गये) आकाश के प्रदेश (हैं) वैसे ही शेषों (धर्म, अधर्म और जीव) के प्रदेश होते हैं। परमाणु (बहु) प्रदेशरहित अर्थात् एक प्रदेशी (होता है)। उससे (पुद्गल के) प्रदेशों का उद्भव कहा गया (है)। (60) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स। वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स। समओ (समअ) 1/1 समय अव्यय अप्पदेसो (अप्पदेसो) 1/1 वि प्रदेशरहित पदेसमेत्तस्स (पदेसमेत्त) 6/1 वि प्रदेशमात्र(परमाणु) की दव्वजादस्स [(दव्व)-(जाद) भूकृ 6/1] पुद्गल द्रव्य से उत्पन्न वदिवददो (वदिवदद) 1/1 वि मंदगति से गमन करनेवाला (त) 1/1 सवि. वट्टदि (वट्ट) व 3/1 अक है पदेसमागासदव्वस्स [(पदेस)+(आगासदव्वस्स)] पदेसं' (पदेस) 2/1 प्रदेश में [(आगास)-(दव्व) 6/1] आकाश द्रव्य के अन्वय- आगासदव्वस्स पदेसं दव्वजादस्स पदेसमेत्तस्स वदिवददो दु सो समओ अप्पदेसो वट्टदि। - अर्थ- आकाशद्रव्य के (एक) प्रदेश में (एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक) पुद्गल द्रव्य से उत्पन्न प्रदेशमात्र (परमाणु) की (अवस्था) (जब) मंदगति से गमन करनेवाली (होती है) तो वह (गमन-अवधि) समय है (जो) प्रदेशरहित अर्थात् एक प्रदेशी होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-2) (61) For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 47. वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुव्वो। जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी।।। मंदगति से चलनेवाला इसलिए प्रदेश में उसके समान • 'समय उससे समओ तदो आगे वदिवददो (वदिवदद) 1/1 वि अव्यय देसं (देस) 2/1 तस्सम(मूल शब्द) (तस्सम) 1/1 वि अनि (समअ) 1/1 अव्यय (पर) 1/1 वि . (पुव्व) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि अत्थो (अत्थ) 1/1 (त) 1/1 सवि कालो (काल) 1/1 समओ (समअ) 1/1 उप्पण्णपद्धंसी [(उप्पण्ण) भूकृ अनि- (पद्धंसी) 1/1 वि] पहले पुव्वो जो . जो पदार्थ वह , काल समय-पर्याय उत्पन्न और नाशवान अन्वय- तं देसं वदिवददो समओ तस्सम तदो पुव्वो परो जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी। अर्थ- इसलिए (आकाश के) प्रदेश में मंदगति से चलनेवाला (परमाणु) (जो गमन अवधि लेता है) (वह) समय (है) (जो) उस (परमाणु) के समान (एक प्रदेशी) (है) उससे पहले (और) आगे जो (आधारभूत) पदार्थ है, वह काल (द्रव्य) (है)। (उसकी) समय-पर्याय उत्पन्न (होती है) और नाशवान (होती है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (62) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. आगासमणुणिविटुं आगासपदेससण्णया भणिदं। सव्वेसिं च अणूणं सक्कादि तं देदुमवगासं।। आकाश परमाणु से नियंत्रित/ रोका हुआ आकाश-प्रदेश नाम से कहा गया भणिदं आगासमणुणिविट्ठ [(आगासं)+(अणुणिविट्ठ)] आगासं (आकाश) 1/1 [(अणु)-(णिविठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि] आगासपदेससण्णया [(आगास)-(पदेस) (सण्णया) 3/1अनि] (भण-भणिद) भूकृ 1/1 सव्वेसिं (सव्व) 4/2 सवि अव्यय अणूणं (अणु) 4/2 सक्कादि (सक्क) व 3/1 अक (त) 1/1 सवि देदुमवंगासं [(देहूँ)+(अवगासं)] देहूँ (दे) हेकृ - अवगासं (अवगास) 2/1 सब और परमाणुओं के लिए समर्थ होता है वह देने के लिए अवकाश - अन्वय- अणुणिविटुं आगासं आगासपदेससण्णया भणिदं च तं सव्वेसिं अणूणं अवगासं देवं सक्कादि। अर्थ- परमाणु से नियंत्रित/रोका हुआ (जो) आकाश (द्रव्य) (है), (वह) आकाश (एक) प्रदेश नाम से कहा गया (है) और वह (आकाश-प्रदेश) सब परमाणुओं के लिए अवकाश देने के लिए समर्थ होता है। 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (63) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य। दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स। एक्को एक अथवा दो बहुगा बहुत संखातीदा तदो . अणता (एक्क) 1/1 वि अव्यय (दुग) 1/2 वि (बहुग) 1/2 वि [(संखा)+(अतीदा)] [(संखा)-(अतीद) भूकृ 1/2 अनि] अव्यय (अणंत) 1/2 वि अव्यय (दव्व) 6/2 अव्यय • (पदेस) 1/2 (संति) व 3/2 अक अनि अव्यय [(समयो)+(इति)] समयो (समय) 1/1 इति (अ) = ही (काल) 6/1 संख्या से परे (असंख्यात) उसके बाद अनंत और द्रव्यों के तथा प्रदेश होते हैं निश्चय ही दव्वाणं पदेसा संति समय त्ति समय-पर्याय कालस्स काल की अन्वय- दव्वाणं एक्को दुगे व बहुगा य संखातीदा च तदो हि अणंता पदेसा संति कालस्स समय त्ति। अर्थ- द्रव्यों के एक, दो अथवा बहुत (संख्यात) और संख्या से परे (असंख्यात) तथा उसके बाद निश्चय ही अनंत प्रदेश होते हैं। काल (द्रव्य) की (अभिव्यक्ति) समय-पर्याय (एक प्रदेशी) ही (कही गई है)। (64) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एकसमयम्हि। समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि।। उत्पाद नाश उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि (उप्पाद) 1/1 (पद्धंस) 1/1 (विज्ज) व 3/1 अक अव्यय (ज) 6/1 सवि. [(एक)-(समय) 7/1] (समय) 6/1 . (त) 1/1 सवि जस्स रहता है यदि जिसका एकसमय में समय का एकसमयम्हि समयस्स वह वि अव्यय . . समय समओ सभावसमवट्टिदो (समअ) 1/1 [(सभाव)-(समवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि] (हव) व 3/1 अक अस्तित्ववान पदार्थ पर अवस्थित होता है हवात अन्वय- जस्स समयस्स एकसमयम्हि जदि उप्पादो पद्धंसो विज्जदि सो समओ सभावसमवट्ठिदो वि हवदि। अर्थ-जिस समय का एकसमय में यदि उत्पाद (और) नाश रहता है (तो) वह समय अस्तित्ववान पदार्थ पर ही अवस्थित (टिका हुआ) होता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (65) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा। समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसब्भावो।। एक समय में एगम्हि (एग) 7/1 वि . संति (संति) व 3/2 अक अनि होते हैं समये (समय) 7/1 संभवठिदिणास- [(संभव)-(ठिदि)-(णास)- उत्पत्ति, स्थिंति, नाश सण्णिदा (सण्णिद) 1/2 वि] नामक अझ (अट्ठ) 1/2 (समय) 6/1 काल के सव्वकालं [(सव्व) सवि-(काल) 2/1] सबकाल में : (एत) 1/1 सवि , यह अव्यय ही कालाणुसब्भावो [(कालाणु)-(सब्भाव) 1/1] कालाणु का अस्तित्व आशय समयस्स अन्वय- एगम्हि समये समयस्स संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा संति एस हि कालाणुसब्भावो सव्वकालं। अर्थ- एक समय में काल (द्रव्य) के उत्पत्ति (उत्पाद), स्थिति (ध्रौव्य), नाश (व्यय) नामक आशय (सदा) होते हैं। यह (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य) ही (बताता है कि) कालाणु का अस्तित्व सबकाल में (रहता है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) 'काल' एक प्रदेशी माना गया है, इसलिये इसे 'कालाणु' कहा गया है। • (66) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं तु तच्चदो णाएं। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदो।। जस्स ण संति जिस (द्रव्य) के नहीं होते हैं अनेक प्रदेश प्रदेशमात्र और यथार्थरूप से (ज) 6/1 सवि अव्यय (संति) व 3/2 अक अनि पदेसा (पदेस) 1/2 पदेसमेत्तं (पदेसमेत्त) 1/1 वि अव्यय तच्चदो (तच्चदो) अव्यय. पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय णाएं (णा) हेकृ सुण्णं (सुण्ण) 2/1 वि जाण (जाण) विधि 2/1 सक तमत्थं [(तं)+(अत्थं)] तं (त) 2/1 सवि अत्थं (अत्थ) 2/1 अत्यंतरभूदमत्थीदो [(अत्यंतरभूदं)+ (अत्थीदो)] [(अत्यंतर)-(भूद) भूकृ 1/1] अत्थीदो (अत्थि) 5/1 जानने के लिए शून्य जानो उस द्रव्य को विपरीत अर्थ लिये हुए अस्तित्व से अन्वय- जस्स पदेसा ण संति तु पदेसमेत्तं तच्चदो णादं तमत्थं . सुण्णं जाण अत्थीदो अत्यंतरभूदं। अर्थ- जिस (द्रव्य) के अनेक प्रदेश नहीं हैं, और (एक) प्रदेशमात्र भी यथार्थरूप से जानने के लिए (नहीं है) (तो) उस द्रव्य को (तुम) शून्य (अस्तित्व रहित) जानो (क्योंकि) (वह) अस्तित्व (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य) से विपरीत अर्थ लिये हुए (कोई वस्तु है) अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं हो सकती है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (67) For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. सपदेसेहिं समग्गो लोगो अडेहिं णिट्ठिदो णिच्चो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्केण संबद्धो॥ लोक सपदेसेहिं समग्गो लोगो अटेहिं णिट्ठिदो णिच्चो . (स-पदेस) 3/2 वि अपने प्रदेशों-सहित (समग्ग) 1/1 वि समस्त (लोग) 1/1 (अट्ठ) 3/2 पदार्थों से (णिट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि । पूर्ण किया हुआ (णिच्च) 1/1 वि शाश्वत (ज) 1/1 सवि जो (त) 2/1 सवि उसको (जाण) व 3/1 सक जानता है (जीव) 1/1 [(पाण)-(चदुक्क) 3/1 वि] चार प्राणों से (संबद्ध) भूकृ 1/1 अनि युक्त जीव जाणदि जीवो पाणचदुक्केण संबद्धो अन्वय- सपदेसेहिं अट्ठेहिं णिट्ठिदो समग्गो लोगो णिच्चो तं जो जाणदि जीवो पाणचदुक्केण संबद्धो। अर्थ- अपने प्रदेशों-सहित पदार्थों (द्रव्यों) से पूर्ण किया हुआ समस्त लोक शाश्वत (है)। उस (लोक) को जो जानता (है) (वह) जीवद्रव्य (है)। (संसार अवस्था में) (वह) (जीवद्रव्य) चार प्राणों से युक्त (होता है)। (68) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. इंदियपाणो य तथा बलपाणो तह य आउपाणो य। आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते।। इंदियपाणो [(इंदिय)-(पाण) 1/1] . इन्द्रियप्राण अव्यय और तधा अव्यय इसी प्रकार बलपाणो बलप्राण [(बल)-(पाण) 1/1] अव्यय तह इसी प्रकार अव्यय और आयुप्राण आउपाणो [(आउ)-(पाण) 1/1] अव्यय और आणप्पाणप्पाणो [(आणप्पाण)-(प्पाण) 1/1] श्वासोच्छवास प्राण जीवाणं . (जीव) 6/2 जीवों के होंति (हो) व 3/2 अक पाणा (पाण) 1/2 . (त). 1/2 सवि होते हैं प्राण अन्वय- इंदियपाणो य तथा बलपाणो य तह आउपाणो य आणप्पाणप्पाणो ते पाणा जीवाणं होंति। अर्थ- इन्द्रियप्राण और इसी प्रकार बलप्राण और इसी प्रकार आयुप्राण और श्वासोच्छवास प्राण- वे (सब) प्राण जीवों के होते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (69) . For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । पाणा पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ।। सो जीवो ते पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं सो जीवो ते पाणा पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता (70) (पाण) 3/2 (चदु) 3 / 2 वि (जीव) व 3 / 1 सक (जीव ) भवि 3 / 1 सक (ज) 1 / 1 सवि अव्यय ( जीव -- जीविद ) भूकृ 1 / 1 जीया अव्यय (त) 1/1 सवि (जीव) 1/1 (त) 1/2 सवि (पाण) 1 / 2 [ ( पोग्गल ) - ( दव्व ) 3/2] (णिव्वत्त) भूक 1/2 अनि जीवो ते पाणा पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता । प्राणों से चार जीता है जयेगा जो निश्चय ही विगत काल में वह जीव अन्वय- जो हि चदुहिं पाणेहिं जीवदि जीवस्सदि पुव्वं जीविदो सो to प्राण पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न अर्थ - जो निश्चय ही चार प्राणों से जीता है, जीवेगा, विगतकाल में जीया (है) वह जीव (द्रव्य है) (और) वे (चारों ) प्राण पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न (है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं। उवभुंजदि कम्मफलं बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं।। जीवो जीव पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं (जीव) 1/1 [(पाण)-(णिबद्ध) प्राणों से युक्त भूकृ 1/1 अनि] (बद्ध) भूकृ 1/1 अनि बंधा हुआ [(मोह)+(आदिएहिं)] [(मोह)-(आदिअ) 3/2] मोहनीय और अन्य 'अ' स्वार्थिक . (कम्म) 3/2 कर्मों से (उवभुंज) व 3/1 सक भोगता है [(कम्म)-(फल) 2/1] कर्मफल को (बज्झदि) व कर्म 3/1 अनि बाँधा जाता है (अण्ण) 3/2 सवि अन्यों से (कम्म) 3/2 कम्मेहिं उवभुंजदि कम्मफलं . बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं कर्मों से - अन्वय- मोहादिएहिं कम्मेहिं बद्धो जीवो पाणणिबद्धो कम्मफलं उवभुंजदि अण्णेहिं कम्मेहिं बज्झदि। अर्थ- मोहनीय और अन्य कर्मों से बंधा हुआ जीव प्राणों से युक्त (होता है), (और) कर्मफल को भोगता है। (तथा) अन्य कर्मों से बाँधा जाता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (71) . For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवो जीव 57. पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं। जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं।। पाणाबाधं [(पाण)+(आबाधं)] [(पाण)-(आबाध) 2/1] प्राणों की क्षति (जीव) 1/1 मोहपदेसेहिं [(मोह)-(पदेस)' 3/2] मोह एवं द्वेष के कारण कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है जीवाणं (जीव) 6/2 जीवों के जदि अव्यय (त) 1/1 सवि वह हवदि (हव) व 3/1 अक घटित होता है अव्यय निश्चय ही (बंध) 1/1 णाणावरणादिकम्मेहिं [(णाणावरण)+(आदि)+ - (कम्मेहिं)] [(णाणावरण)-(आदि)- ज्ञानावरण तथा अन्य (कम्म) 3/2] कर्मों से यदि बंधो बंध अन्वय- जदि सो जीवो मोहपदेसेहिं जीवाणं पाणाबाधं कुणदि हि णाणावरणादिकम्मेहिं बंधो हवदि। अर्थ- यदि वह जीव मोह (आसक्ति) एवं द्वेष के कारण जीवों के प्राणों की क्षति करता है (तो) निश्चय ही (इस जीव के) ज्ञानावरण तथा अन्य कर्मों से बंध घटित होता है। 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 36) (शा (72) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे। ___ण चयदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु विसयेसु।। आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे दूसरे (आद) 1/1 आत्मा [(कम्म)-(मलीमस-मलिमस)कर्मों से मलिन 1/1 वि] (धर) व 3/1 सक धारण करता है (पाण) 2/2 प्राणों को अव्यय बार-बार (अन्य) 2/2 सवि अव्यय नहीं (चय) व 3/1 सक छोड़ता है अव्यय जबतक (ममत्त) 2/1 [(देह)-(पधाण) 7/2 वि] देह में मुख्यरूप से अन्तर्हित (विसय) 7/2 इन्द्रिय विषयों में चयदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु ममत्व विसयेसु अन्वय- कम्ममलिमसो आदा पुणो पुणो अण्णे पाणे धरेदि जाव देहपधाणेसु विसयेसु ममत्तं ण चयदि। ___ अर्थ- कर्मों से मलिन आत्मा बार-बार दूसरे प्राणों को धारण करता है जबतक (वह) देह में मुख्यरूप से अन्तर्हित (देह पर मुख्यरूप से आधारित) इन्द्रिय विषयों में ममत्व नहीं छोड़ता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (73) For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '59. जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति।। जो इंदियादिविजई इन्द्रिय तथा इसी प्रकार और का भी जीतनेवाला होकर भवीय उवओगमप्पगं झादि कम्मेहिं (ज) 1/1 सवि [(इंदिय)+(आदिविजई)] [(इंदिय)-(आदि)(विजइ) 1/1 वि] (भव+इय) संकृ [(उवओगं)+(अप्पगं)] उवओगं (उवओग) 2/1 वि अप्पगं (अप्पग) 2/1 . (झा) व 3/1 सक (कम्म) 3/2 (त) 1/1 सवि अव्यय (रंजदि) व कर्म 3/1 अनि अव्यय (त) 2/1 सवि (पाण) 1/2 (अणुचर) व 3/2 सक ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्यान करता है कर्मों से वह नहीं रंजदि रंगा जाता है कैसे पाणा उसका प्राण पीछा करते हैं अणुचरंति अन्वय- जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि सो कम्मेहिं ण रंजदि तं पाणा किह अणुचरंति। अर्थ- जो इन्द्रिय तथा इसी प्रकार और का भी जीतनेवाला होकर (शुद्ध) ज्ञानस्वरूप आत्मा का ध्यान करता है (तो) वह कर्मों से नहीं रंगा जाता (बाँधा जाता) है उस (आत्मा) का प्राण कैसे पीछा करेंगे? अर्थात् वह आत्मा दूसरा जन्म धारण नहीं करेगी। 1. 2. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'भविय' के स्थान पर 'भवीय' किया गया है। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। (74) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्थंतरम्मि संभूदो। अत्थो पज्जाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं।। + 40 अत्थित्तणिच्छिदस्स [(अत्थित्त)-(णिच्छिद) निश्चित अस्तित्ववाले 6/1 वि हि अव्यय (त) 1/1 सवि अत्थस्सत्यंतरम्मि [(अत्थस्स)+ (अत्यंतरम्मि)] अत्थस्स (अत्थ) 6/1 जीव की अत्यंतरम्मि (अत्यंतर) 7/1 परिवर्तनरूप में (संभूद) भूकृ 1/1 अनि उत्पन्न हुई अत्थो (अत्थ) 1/1 पज्जाओ (पज्जाअ) 1/1 . (त) 1/1 सवि वह संठाणादिप्पभेदेहिं [(संठाण)+(आदिप्पभेदेहिं)] ... [(संठाण)-(आदि)- शरीर आकार तथा . (प्पभेद) 3/2] .. अन्य भेदों से युक्त संभूदो जीव पर्याय ____अन्धय- अत्थित्तणिच्छिदस्स अत्थस्स हि अत्यंतरम्मि संभूदो अत्थो सो संठाणादिप्पभेदेहिं पज्जाओ। ___ अर्थ- निश्चित अस्तित्ववाले जीव की (कर्म पुद्गल के संसर्ग से) परिवर्तनरूप में उत्पन्न हुई (जो) जीव (पर्याय) (है) वह ही शरीर आकार तथा अन्य भेदों से युक्त (जीव की) (नर, नारकी आदि) पर्याय (है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (75) For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा। पज्जाया जीवाणं उदयादीहिं णामकम्मस्स।।... णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं सहित अण्णहा [(णर)-(णारय)- मनुष्य, नारकी, (तिरिय)-(सुर) 1/2] तिर्यंच और देव . [(संठाण)+(आदीहिं)] ... [(संठाण)-(आदि) 3/2] . शरीर आकार आदि सहित .. अव्यय विभाव रूप में (जा) भूकृ 1/2 उत्पन्न हुई (पज्जाय) 1/2 पर्यायें (जीव) 6/2 जीवों के [(उदय)+ (आदीहिं)] (उदयादि) 3/2 उदयादि से (णामकम्म) 6/1 जादा पज्जाया जीवाणं उदयादीहिं णामकम्मस्स नामकर्म के अन्वय- जीवाणं णामकम्मस्स उदयादीहिं णरणारयतिरियसुरा पज्जाया संठाणादीहिं अण्णहा जादा। अर्थ- (संसारी) जीवों के नामकर्म के उदयादि से मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव पर्यायें (होती हैं), (वे) (नामकर्म के उदय आदि के कारण) शरीर आकार आदि सहित (स्वभावपर्याय से भिन्न) विभावरूप में उत्पन्न हुई (पर्यायें हैं)। (76) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खाद। जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि।। अव्यय इसलिए सब्भावणिबद्धं [(सब्भाव)-(णिबद्ध) स्वभाव से निष्पन्न भूकृ 1/1 अनि] दव्वसहावं [(दव्व)-(सहाव) 2/1] द्रव्य के स्वभाव को तिहा अव्यय तीन प्रकार से समक्खादं (समक्खाद) भूकृ 1/1 अनि कहा हुआ जाणदि (जाण) व 3/1 सक जानता है (ज) 1/1 सवि सवियप्पं (स-वियप्प) 2/1 वि भेद-सहित अव्यय नहीं मुहदि (मुह) व 3/1 अक मूर्छित होता है (त) 1/1 सवि अण्णदवियम्हि - [(अण्ण) सवि-(दबिय) 7/1] अन्य द्रव्य में वह अन्वय- तं जो तिहा समक्खादं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं सवियप्पं जाणदि सो अण्णदवियम्हि ण मुहदि। अर्थ- इसलिए जो तीन प्रकार (उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य) से कहे हुए स्वभाव से निष्पन्न (जीव) द्रव्य के स्वभाव को भेद (स्वभाव-विभाव) सहित जानता है, वह (आत्मज्ञानी) अन्य द्रव्य (विभाव द्रव्य) में मूर्च्छित नहीं होता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (77) For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. अप्पा उवओगप्पा उवओगोणाणसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि।। अप्पा (अप्प) 1/1 (उवओगप्प) 1/1 वि उवओगप्पा उवओगो (उवओग) 1/1 आत्मा उपयोगस्वरूपवाला/ चैतन्यस्वरूपवाला उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) ज्ञान-दर्शन कहा गया णाणदसणं भणिदो . . . [(णाण)-(दसण) 1/1] . (भण-भणिद) भूकृ 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (सुह) 1/1 वि , (असुह) 1/1 वि अव्यय (उवओग) 1/1 (अप्प) 6/1 (हव) व 3/1 अक असुहो वा भी . शुभ अशुभ अथवा उपयोग आत्मा का होता है उवओगो अप्पणो हवदि अन्वय- अप्पा उवओगप्पा हवदि उवओगो णाणदंसणं अप्पणो सो उवओगो सुहो वा असुहो वि भणिदो। अर्थ- आत्मा उपयोगस्वरूपवाला/चैतन्यस्वरूपवाला होता है। उपयोग ज्ञान-दर्शन (है)। (तथा) आत्मा का वह उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) शुभ अथवा अशुभ भी कहा गया (है)। (78) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तथ पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।। उaओगो जइ हि सुहो पुणं जीवस्स संचयं जादि असुहो वा तध पावं सिमभावे ण चयमत्थि ( उवओग) 1 / 1 अव्यय अव्यय (सुह) 1/1 वि (पुण्ण) 2 / 1 वि (जीव ) 6/1 ( संचय) 2/1 (जा) व 3 / 1 सक ( असुह) 1 / 1 वि अव्यय अव्यय (पाव) 2/1 वि [(तेसिं) + (अभावे)] तेसिं (त) 6/2 सवि अभावे (अभाव) 7/1 अव्यय [(चयं) + (अत्थि)] चयं (चय) 1/1 अत्थि (अस) व 3/1 अक उपयोग यदि निश्चय ही For Personal & Private Use Only शुभ पुण्य जीव के राशि को प्राप्त / उत्पन्न करता है अशुभ अथवा पादपूरक पाप को उनके अभाव में नहीं अन्वय- जीवस्स जदि सुहो उवओगो हि पुण्णं संचयं जादि वा असुहो पावं तथ तेसिमभावे चयं ण अत्थि। अर्थ- जीव के यदि शुभ उपयोग (होता है) (तो) (वह) निश्चय ही पुण्य राशि को प्राप्त / उत्पन्न करता है अथवा (यदि) अशुभ (उपयोग ) (होता है) (तो) पाप (समूह) को ( प्राप्त / उत्पन्न करता है ) । उन (शुभ व अशुभ) के अभाव में (पुण्य-पाप) (कर्म का ) संग्रह नहीं होता है। प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) संग्रह होता है (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स।। जाणादि जिणिंदे . पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे जीवेसु साणुकंपो उवओगो (ज) 1/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (जिणिंद) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक (सिद्ध) 2/2 अव्यय (अणगार) 2/2 (जीव) 7/2 (साणुकंप) 1/1 वि (उवओग) 1/1 (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि (त) 6/1 सवि जो जानता है अरहंतों को ...देखता है सिद्धों को उसी प्रकार मुनियों को जीवों में करुणा-युक्त उपयोग वह शुभ उसका तस्स अन्वय- जो जिणिंदे जाणादि सिद्धे पेच्छदि तहेव अणगारे जीवेसु साणुकंपो तस्स सो उवओगो सुहो। अर्थ- जो अरहंतों (के स्वरूप) को (ज्ञाताभाव से) जानता है, सिद्धों को (दृष्टाभाव से) देखता है उसी प्रकार मुनियों (आचार्य, उपाध्याय और साधुओं) को (भी) (जानता-देखता है), (जो) जीवों में करुणा-युक्त (है), उसका वह उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) शुभ (है) अर्थात् वह जीव शुभोपयोगी (है)। 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। (80) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो।। विसयकसाओगाढो [(विसयकसाअ) + (ओगाढो)] [(विसयकसाअ)-(ओगाढ) - इन्द्रियविषय तथा 1/1 वि कषायों में गाढ़ा दुस्सुदिदुच्चित्त- [(दुस्सुदि)-(दुच्चित्त)- कषायोत्तेजक साहित्य दुट्ठगोट्ठिजुदो (दुट्ठ) वि (गोट्ठी-गोट्ठि)- में रसयुक्त, खोटे (जुद) भूकृ 1/1 अनि] मनवाला , व्यर्थ चर्चा में संलग्न उग्गो (उग्ग) 1/1 वि आक्रामक रुखवाला उम्मग्गपरो [(उम्मग्ग)-(पर) 1/1 वि] कुमार्ग में लगा हुआ उवओगो (उवओग) 1/1 उपयोग जस्स (ज) 6/1 सवि जिसका (त) 1/1 सवि वह असुहो (असुह) 1/1 वि . अशुभ ___ अन्वय- जस्स उवओगो विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठि -जुदो उग्गो उम्मग्गपरो सो असुहो। ... अर्थ- जिसका उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) इन्द्रियविषय तथा (क्रोधादि) कषायों में गाढ़ा (है), (जो) कषायोत्तेजक साहित्य में रसयुक्त (है), (जो) खोटे मनवाला (है), (जो) व्यर्थ चर्चा में संलग्न (है), (जो) (सदैव) आक्रामक रुखवाला (है), (जो) कुमार्ग में लगा हुआ (है) (उसका) वह (उपयोग) अशुभ (है)। 1. प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 3 (4 ख) प्रवचनसार (खण्ड-2) (81) . For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तोण अण्णदवियम्हि। होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए।। असुहोवओगरहिदो' [(असुह)+(उवओगरहिदो)] [(असुह) वि-(उवओग)- अशुभोपयोग से रहित/ (रहिदो) भूकृ 1/1 अनि] के बिना सुहोवजुत्तो [(सुह)+(उवजुत्त)] [(सुह) वि-(उवजुत्त) शुभ में संलग्न भूकृ 1/1 अनि] अव्यय नहीं .. अण्णदवियम्हि [(अण्ण) सवि-(दविय) 7/1] अन्य विषय में होज्जं (होज्ज) व 1/1 अक हूँ मज्झत्थोऽहं [(मज्झत्थो)+ (अहं)] मज्झत्थो (मज्झत्थ) 1/1 वि मध्यस्थ अहं (अम्ह) 1/1 स . मैं णाणप्पगमप्पगं [(णाणप्पगं)+(अप्पगं)] णाणप्पगं (णाणप्पग) 2/1 वि ज्ञानात्मक अप्पगं (अप्पग) 2/1 आत्मा (झाए) व 1/1 सक अनि ध्यान करता हूँ झाए अन्वय- अहं असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि मज्झत्थो होज्जं णाणप्पगमप्पगं झाए। अर्थ- मैं अशुभोपयोग से रहित (हूँ)/के बिना (हूँ), शुभ में संलग्न नहीं (हूँ), अन्य विषय (निंदा-प्रशंसादि) में मध्यस्थ हूँ (और) ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ। 1. समास के अन्त में करण के साथ रहित का अर्थ होता है-'के बिना' (82) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।। FEE । और वाणी [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = न अहं (अम्ह) 1/1 स (देह) 1/1 अव्यय (मण) 1/1 अव्यय [(च)+(एव)] च (अ) = और एव (अ) = ही (वाणी) 1/1 अव्यय (कारण) 1/1 (त) 6/2 सवि (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (कारयिदु) 1/1 वि (अणुमंतु) 1/1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि वचन न कारण कारणं तेसिं कत्ता ण . उनका करनेवाला . कारयिदा अणुमंता णेव करानेवाला अनुमोदक न ही करनेवालों का कत्तीणं अन्वय- णाहं देहो ण मणो च ण एव वाणी ण कारणं तेसिं ण कत्ता ण कारयिदा णेव कत्तीणं अणुमंता। अर्थ- मैं न शरीर (हूँ), न मन (हूँ), और न ही वचन (हूँ), न उनका कारण (हूँ), न करनेवाला (हूँ), न करानेवाला (हूँ), न ही करनेवालों का अनुमोदक (हूँ। प्रवचनसार (खण्ड-2) (83) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69. देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिहिट्ठा। पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं।। . शरीर और वचन (देह) 1/1 अव्यय (मण) 1/1 वाणी (वाणी) 1/1 पोग्गलदव्वप्पग त्ति [(पोग्गलदव्वप्पगा)+ (इति)] [(पोग्गल)-(दव्वप्पग)- 1/2 वि] इति (अ) = पादपूरक णिद्दिट्ठा (णिट्ठि) भूकृ 1/2 अनि, पोग्गलदव्वं [(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] पुद्गल द्रव्यात्मक पादपूरक . वर्णित पुद्गल द्रव्य निश्चय ही और अव्यय पुणो पिंडो अव्यय (पिंड) 1/1 . [(परमाणु)-(दव्व) 6/2] समूह परमाणुदव्वाणं परमाणु द्रव्यों का अन्वय- देहो मणो य वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिहिट्ठा पुणो पोग्गलदव्वं हि परमाणुदव्वाणं पिंडो। ___अर्थ- शरीर, मन और वाणी (ये) (तीनों योग) पुद्गल द्रव्यात्मक वर्णित (है) और पुद्गल द्रव्य निश्चय ही परमाणु द्रव्यों का समूह (है)। (84) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं। तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स।। णाहं पोग्गलमइओ ते पुद्गल मया पोग्गला कया पिंडं तम्हा [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = न अहं (अम्ह) 1/1 स मैं [(पोग्गल)-(मइअ) 1/1 वि] पुद्गलमय अव्यय नहीं (त) 1/2 सवि (अम्ह) 3/1 स अनि मेरे द्वारा (पोग्गल) 1/2 . (कय) भूकृ 1/2 अनि किये गये (पिंड) 2/1 समूह में अव्यय इसलिए अव्यय निश्चय ही अव्यय नहीं [(देहो) (अहं)] देहो (देह) 1/1 शरीर अहं (अम्ह) 1/1 स (कत्तु) 1/1 वि कर्ता अव्यय अथवा (त) 6/1 सवि उस (देह) 6/1 शरीर का देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स अन्वय- अहं पोग्गलमइओ ण मया ते पोग्गला पिंडं ण कया तम्हा हि देहोऽहं ण वा तस्स देहस्स कत्ता। अर्थ- मैं पुद्गलमय नहीं (हँ)। मेरे द्वारा वे पुद्गल समूह में नहीं किये गये (हैं)। इसलिए निश्चय ही मैं शरीर नहीं (हूँ) अथवा उस शरीर का कर्ता (भी) (नहीं हूँ)।. 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-2) (85) . For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो। णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि।। य . स्वयं अपदेसो (अपदेस) 1/1 वि प्रदेश-रहित परमाणू (परमाणु) 1/1 परमाणु पदेसमेत्तो (पदेसमेत्त) 1/1 वि एक प्रदेशमात्र अव्यय और सयमसद्दो [(सयं)+(असद्दो)] सयं (अ) = स्वयं असद्दो (असद्द) 1/1 वि शब्द-रहित (ज) 1/1 सवि गिद्धो । (णिद्ध) 1/1 वि स्निग्ध अव्यय (लुक्ख) 1/1 वि अव्यय पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति दुपदेसादित्तमणुहवदि [(दुपदेस)+(आदित्तं)+ (अणुहवदि)] [(दुपदेस)-(आदित्त) 2/1वि] दो प्रदेश वगैरहपन को अणुहवदि (अणुहव) प्राप्त करता है व 3/1 सक अथवा रूक्ष . . लुक्खो अन्वय- परमाणू अपदेसो य जो पदेसमेत्तो सयमसद्दो णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि। अर्थ- परमाणु (दो आदि) प्रदेश-रहित (है) और जो एक प्रदेशमात्र (है) (वह) स्वयं शब्द रहित है। (और) (उसमें) स्निग्ध अथवा रूक्ष (गुण) (होता है) (तथा) (परिणमन करता हुआ) (वह) (स्निग्ध अथवा रूक्ष गुण के कारण) दो प्रदेश वगैरहपन को प्राप्त करता है। (86) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं । परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि । | गुत्तरगा अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं परिणामादो भणिदं जाव 1. [(एग ) + (उत्तरं ) + (एग ) + (आदी ) ] [ ( एग) वि- ( उत्तरं ) अव्यय (एग ) वि - ( आदि) 1 / 1] (अणु) 6 / 1 (द्धित्तण) 1 / 1 अव्यय . ( लुक्खत्त) 1 / 1 (परिणाम) 5 / 1 (भण भणिद) भूकृ 1/1 अव्यय प्रवचनसार (खण्ड-2 ) - एक (अंश) में ऊपर एक (अंश) से आरम्भ अणतत्तमणुभवदि [ (अणंतत्तं) + (अणुभवदि)] अणंतत्तं (अनंतत्त) 2/1 अणुभवदि (अणुभव) व 3/1 सक अन्वय- अणुस्स परिणामादो णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं एगुत्तरमेगादी भणिदं जाव अनंतत्तं अणुभवदि । परमाणु का स्निग्धता और रूक्षता परिणमन स्वभाव के अर्थ- परमाणु के परिणमन स्वभाव के कारण (जो ) स्निग्धता और रूक्षता एक (अंश) से आरंभ (होती है) (वह) (तब तक) एक (अंश) में ऊपर कही गई (है) जब तक (वह) अनंतता को प्राप्त करती है। (जैसे बकरी, गाय, भैंस, ऊँटनी अथवा घी वगैरह में स्निग्धता के उत्तरोत्तर भेद है और धूलि, राख, रेत आदि (वस्तुओं के क्रम में) वस्तुओं में रूक्षता के उत्तरोत्तर भेद है। इस प्रकार स्निग्ध- रूक्ष गुण के अनंत भेद हैं। For Personal & Private Use Only कारण कही गई जब तक 'कारण' व्यक्त करनेवाले शब्दों में पंचमी का प्रयोग होता है। . (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 42) अनंतता को प्राप्त करती है (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा। समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहीणा।। णिद्धा वा (णिद्ध) 1/2 वि अव्यय (लुक्ख) 1/2 वि अव्यय स्निग्ध अथवा रूक्ष पुनरावृत्ति भाषा की लुक्खा वा पद्धति अणुपरिणामा समा विसमा . समदो [(अणु)-(परिणाम) 1/2] परमाणुओं का परिणमन (सम) 1/2 वि सम अव्यय अथवा .. (विसम) 1/2 वि विषम अव्यय पुनरावृत्ति भाषा की . पद्धति (समदो) अव्यय समान रूप से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय . (दुराधिग) 1/2 वि अनि दो अधिक अव्यय यदि (बज्झन्ति) व कर्म 3/2 अनि बाँधे जाते हैं अव्यय [(आदि)-(परिहीण) प्रथम (निम्नतम) 1/2 वि] अंश-रहित दुराधिगा जदि बज्झन्ति आदिपरिहीणा अन्वय- णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा जदि आदिपरिहीणा समा व विसमा वा समदो दुराधिगा हि बज्झन्ति। अर्थ-स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुओं (के अंशों) का परिणमन यदि प्रथम (निम्नतम) अंश-रहित हो (किन्तु) (संख्या में) सम (अंश) (2,4,6....) अथवा (संख्या में) विषम (अंश) (3,5,7....) (हो) (और) समान रूप से दो (अंश) अधिक (हो) (तो) ही (वे) बाँधे जाते हैं। (88) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74. णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो।। णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि (णिद्धत्तण) 3/1 स्निग्धता में (दुगुण) 1/1 वि दो अंशवाला [(चदुगुण) वि-(णिद्ध) 3/1] चार अंशवाली स्निग्धता से [(बंध)+ (अणुभवदि)] (बंध) 2/1 बंध को अणुभवदि (अणुभव) प्राप्त होता है व 3/1 सक (लुक्ख) 3/1 रूक्षता में अव्यय तथा [(ति)-(गुणिद) 1/1 वि] तीन अंशवाली (अणु) 1/1 परमाणु (बज्झदि) व कर्म 3/1अनि बाँधा जाता है [(पंच)-(गुण)-(जुत्त) पाँच अंश-सहित भूकृ 1/1 अनि] लुक्खेण. 111 तिगुणिदो *अणु (मूलशब्द) बज्झदि पंचगुणजुत्तो अन्वय- णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि वा लुक्खेण पंचगुणजुत्तो अणु तिगुणिदो बज्झदि । . .. अर्थ- स्निग्धता में दो अंशवाला (परमाणु) (उसकी) चार अंशवाली स्निग्धता से बँध को प्राप्त होता है तथा रूक्षता में पाँच अंश-सहित परमाणु तीन अंशवाली (रूक्षता से) बाँधा जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) प्रवचनसार (खण्ड-2) (89) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. दुपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा। ___ पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते॥ खंधा दुपदेसादी [(दुपदेस)+(आदी)] [(दुपदेस)-(आदी-आदि) दो प्रदेश से आरंभ 1/2 वि] .. करनेवाले... (खंध) 1/2 . स्कन्ध सुहुमा (सुहुम) 1/2 वि . सूक्ष्म वा । अव्यय और बादरा (बादर) 1/2 वि स्थूल ससंठाणा (स-संठाण) 1/2 वि आकार-सहित पुढविजलतेउवाऊ [(पुढवि)-(जल)-(तेउ)- पृथ्वीकाय, जलकाय, (वाउ) 1/2] अग्निकाय, वायुकाय सगपरिणामेहिं [(सग) वि-(परिणाम) 3/2] स्वपरिणमन से जायंते (जा) व 3/2 अक उत्पन्न होते हैं 'य' विकरण अन्वय- दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ससंठाणा। ___ अर्थ- दो प्रदेश से आरंभ करनेवाले (पुद्गल) स्कंध (जो) सूक्ष्म और स्थूल (होते हैं) (वे) पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय (पुद्गल) स्वपरिणमन से उत्पन्न होते हैं (और) (वे) (भिन्न-भिन्न) आकारसहित (होते हैं)। (90) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76. ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। सुहुमेहि बादरेहि य अप्पाओग्गेहिं जोगेहिं।। सव्वदो ओगाढगाढणिचिदो [(ओगाढ) वि-(गाढ). अ- गहरा, अत्यन्त (णिचिद) भूकृ 1/1 अनि] भरा हुआ पुग्गलकायेहिं [(पुगल)-(काय) 3/2] पुद्गलराशि से (सव्वदो) अव्यय सब ओर से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय लोगो (लोग) 1/1 लोक सुहुमेहि (सुहुम) 3/2 वि सूक्ष्म बादरेहि (बादर) 3/2 वि स्थूल य अव्यय अप्पाओग्गेहिं [(अप्प) (अओग्ग)] आत्मा के लिये [(अप्प)-(अओग्ग) 3/2 वि] अयोग्य जोग्गेहिं (जोग्ग) 3/2 वि योग्य और __ अन्वय- अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं सुहुमेहि य बादरेहि पुग्गलकायेहिं लोगो सव्वद्रो ओगाढगाढणिचिदो। अर्थ- आत्मा के लिये (कर्मरूप होने के) अयोग्य (और) (कर्मरूप होने के) योग्य सूक्ष्म और स्थूल पुद्गलराशि से (यह) लोक सब ओर से अत्यन्त गहरा भरा हुआ (है)। पाइयसद्दमहण्णव कोश में इसे क्रिविअ भी बताया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (91) For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा।। कर्मत्व के योग्य स्कंध कम्मत्तणपाओग्गा [(कम्मत्तण)-(पाओग्ग) 1/2 वि] खंधा (खंध) 1/2 जीवस्स (जीव) 6/1 परिण (परिणइ) 2/1 पप्पा (पप्प) भूकृ 1/2 अनि गच्छंति (गच्छ) व 3/2 सक कम्मभावं [(कम्म)-(भाव) 2/1] अव्यय अव्यय (त) 1/2 सवि जीवेण (जीव) 3/1 परिणमिदा (परिणमिद) भूकृ 1/2 जीव का परिणमन होने पर उपलब्ध प्राप्त हो जाते हैं कर्मरूप में नहीं 540 परन्तु जीव के द्वारा परिणमन कराये गये अन्वय- कम्मत्तणपाओग्गा पप्पा खंधा जीवस्स परिणइं कम्मभावं गच्छंति हि ते जीवेण ण परिणमिदा।। अर्थ- कर्मत्व के योग्य उपलब्ध स्कंध जीव का (रागद्वेषात्मक) परिणमन होने पर कर्मरूप में प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु वे जीव के द्वारा परिणमन नहीं कराये गये (हैं) अर्थात् वे स्वयं ही कर्मरूप में बदल जाते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (92) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78. ते to עב कम्मत्तगदा पोगलकाया पुणो वि जीवस्स संजायते ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ।। देहा देहतर संकमं पप्पा 1. (त) 1/2 सवि (त) 1/2 सवि [ ( कम्मत्त) - ( गद) भूक 1/2 अनि] [ ( पोग्गल ) - (काय) 1 / 2] अव्यय प्रवचनसार (खण्ड-2) अव्यय (जीव ) 4 / 1 (संजाय) व 3 / 2 अक (देह) 1/2 [(देह)-(अंतर) वि-(संकम) 2/1] (पप्प) भूकृ 1/2 अनि to to वे अन्वय- ते ते पोग्गलकाया कम्मत्तंगदा वि पुणो जीवस्स देहंतरसंकमं पप्पा देहा संजायते । वे अर्थ - (पूर्व में कहे हुए) वे वे पुद्गलों के समूह / स्कन्ध (जो ) कर्मत्व भाव में ही परिवर्तित हुए (हैं) (उनसे) फिर जीव के लिए अन्य देह के लिए गमन होने पर अर्जित देह उत्पन्न होती हैं। For Personal & Private Use Only कर्मत्व भाव में परिवर्तित हुए पुद्गलों के समूह / स्कन्ध फिर ही जीव के लिए उत्पन्न होती हैं देह अन्य देह के लिए गमन होने पर अर्जित कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3 - 137 ) (93) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 79. ओरालिओ य देहो देहो वेउविओ य तेजइओ। आहारय कम्मइओ पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे।। ओरालिओ देहो देहो वेउव्विओ तेजइओ * आहारय कम्मइओ (ओरालिअ) 1/1 वि औदारिक अव्यय और (देह) 1/1 शरीर (देह) 1/1 . शरीर (वेउव्विअ) 1/1 वि . वैक्रियिक अव्यय . . और [(तेज)-(इअ) भूकृ 1/1अनि] तेज को प्राप्त (आहारय) 1/1 वि आहारक [(कम्म)-(इअ) कर्म को प्राप्त भूकृ 1/1 अनि] [(पुग्गल)-(दव्वप्पग) पुद्गलद्रव्य से निर्मित 1/2 वि] (सव्व) 1/2 सवि पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे सब अन्वय- ओरालिओ देहो य वेउव्विओ देहो य तेजइओ आहारय कम्मइओ सव्वे पुग्गलदव्वप्पगा। अर्थ- औदारिक शरीर और वैक्रियिक शरीर और तेज को प्राप्त (तैजस) (शरीर), आहारक (शरीर), कर्म को प्राप्त (कार्मण) (शरीर) (ये) सब पुद्गलद्रव्य से निर्मित (है)। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (94) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिसंठाणं [ (जीवं) + (अणिद्दिट्ठसंठाणं)] जीवं (जीव) 2/1 [ ( अणिद्दिट्ठ) भूक अनि ( संठाण) 2 / 1 वि] [(अरसं) + (अरूवं) + (अगंधं)] अरसं (अरस) 2/1 वि अरूवं (अरूव) 2/1 वि अगंधं (अगंध) 2/1 वि ( अव्वत्त) 2 / 1 वि [(चेदणागुणं)+(असद्दं) ] ( चेदणागुण) 2 / 1 वि असद्दं (असद्द ) 2 / 1 वि (जाण) विधि 2/1 सक (अलिंगगहण ) 2 / 1 वि |-. प्रवचनसार (खण्ड-2 ) रस-रहित रूप-रहित गंध-रहित अप्रकट अन्वय जीवं अरसं अरूवं अगंधं अव्वत्तं चेदणागुणं असद्दं चेतना गुणवाला, शब्द-रहित For Personal & Private Use Only जानो तर्क से ग्रहण न होनेवाला अलिंगग्गहणं अणिद्दिट्ठसंठाणं जाण । अर्थ - (तुम) जीव को रस - रहित, रूप-रहित, गंध-रहित, (स्पर्श से भी) अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्द-रहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला (तथा) न कहे हुए आकारवाला जानो। जीव को न कहे हुए आकारवाला (95) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81. मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं । तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ।। मूर्त रूप और इसी प्रकार अन्य गुणवाला मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं' तव्विवदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं (मुत्त) 1 / 1 वि [(रूव)+(आदिगुणो)] [(रूव)-(आदि) ( गुण) 1 / 1 वि] ( बज्झदि) व कर्म 3 / 1 अनि बाँधा जाता है (फास) 3/2 [(अण्ण) + (म्) + (अण्ण) ] (अण्णमण्ण) 3 / 2 वि ( तव्विवरीद) 1 / 1 वि अनि (96) अव्यय (पोग्गलं ) 'द्वितीयार्थक' अव्यय (कम्म) 'द्वितीयार्थक' अव्यय स्पर्श गुणों के कारण. (अप्प ) 1/1 आत्मा ( बज्झदि) व कर्म 3 / 1 अनि बाँधा जाता है कैसे पुद्गल कर्म से अन्वय- रूवादिगुणो मुत्तो अण्णमण्णेहिं फासेहिं बज्झदि तव्विवरीदो अप्पा पोग्गलं कम्मं किध बज्झदि । अर्थ- रूप और इसी प्रकार अन्य गुणवाला मूर्त (पुद्गल परमाणु-स्कंध) परस्पर स्पर्श गुणों के कारण (स्निग्ध- रूक्ष गुण के कारण) बाँधा जाता है। उसके विपरीत (अमूर्त) आत्मा पुद्गल कर्म से कैसे बाँधा जाता है ? परस्पर उसके विपरीत 1. जहाँ पदों की द्विरुक्ति हुई हो, वहाँ दो पदों के बीच में 'म्' विकल्प से आ जाता है। ( प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 3) ( हेम - प्राकृत - व्याकरण 3 / 1 ) For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. रूवादिएहि रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि । । रूवादिहि रहिदो पेच्छदि जाणादि' रूवमादीणि दव्वाणि गुणे जधा तह बंधो तेण जाणीहि 1. [(रूव) + (आदिएहि ) ] [ (रूव) - (आदिअ ) 3/2] 'अ' स्वार्थिक नोट: ( रहिद) भूकृ 1 / 1 अनि (पेच्छ) व 3/1 सक (जाण) व 3 / 1 सक [(रूवं)+(आदीणि)] रूवं (रूव) 2/1. आदीणि (आदि) 2 / 2 वि रूपादि से रहित देखता है जानता है (दव्व) 2/2 (गुण) 2/2 अव्यय अव्यय अव्यय (बंध) 1/1 (त) 3 / 1 सवि ( जाणीहि ) विधि 2 / 1 सक अनि जानो अन्वय- जधा रूवादिएहि रहिदो रूवमादीणि दव्वाणि य गुणे जाणादि पेच्छदि तह तेण बंधो जाणीहि । रूप को और इसी प्रकार अन्य द्रव्यों को गुणों को और अर्थ- जैसे रूपादि से रहित ( अमूर्त आत्मा) रूप को और इसी प्रकार अन्य द्रव्यों (और) (उनके) - गुणों को जानता है, देखता है (तो भी अवलोकन मात्र से अमूर्त आत्मा का पुद्गल कर्म से बंध नहीं होता है) और ( उसके विपरीत) (अनादि कर्म पुद्गल से बंध के कारण अशुद्ध हुई आत्मा का) (उससे उत्पन्न रागद्वेषरूप भाव के कारण) उसके (कर्मपुद्गल के) साथ बंध (होता है ) (तुम) जानो । प्रवचनसार (खण्ड-2 5-2) जैसे For Personal & Private Use Only और बंध उसके साथ वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। `सम्पादक द्वारा अनूदित (97) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83. उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो।। उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि पदुस्सेदि पप्पा विविधे विसये (उवओगमअ) 1/1 वि (जीव) 1/1 (मुज्झ) व 3/1 अक (रज्ज) व 3/1 अक अव्यय (पदुस्स) व 3/1 सक (पप्प) भूकृ 2/2 अनि . (विविध) 2/2 वि (विसय) 2/2 (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (त) 3/2 सवि (संबंध) 1/1 उपयोगमय जीव मोह करता है राग करता है अथवा .. . द्वेष करता है उपलब्ध अनेक प्रकार के इंद्रिय-विषयों में जो निश्चय ही फिर उनके साथ/कारण संयोग che "E संबंधो अन्वय- जो उवओगमओ जीवो विविधे पप्पा विसये मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि पुणो हि तेहिं संबंधो। अर्थ- जो उपयोगमय (अशुद्ध) जीव (है) (वह) अनेक प्रकार के उपलब्ध इंद्रिय-विषयों में मोह (आत्मविस्मृति) करता है, राग (आसक्ति) करता है अथवा द्वेष (शत्रुता) करता है, (तो) (उस जीव के) फिर निश्चय ही उन (मोह, राग, द्वेष) के साथ/कारण (कर्मबंध) (का) संयोग (होता है)। 2. पप्पा ( संकृ अनि) = इन्द्रिय विषयों को प्राप्त करके (यह अर्थ भी लिया जा सकता है) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (98) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84. भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये। रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो।। भावेण जेण जिस जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये रज्जदि तेणेव (भाव) 3/1 भाव से (ज) 3/1 सवि (जीव) 1/1 जीव (पेच्छ) व 3/1 सक देखता है • (जाण) व 3/1 सक जानता है (आगद) भूकृ 2/1 अनि आई हुई (वस्तु) को (विसय)7/1 क्षेत्र में (रज्जदि) व 3/1 अक अनि । अनुरक्त हो जाता है [(तेण)+(एव)] तेण (त) 3/1 सवि उसके साथ एव (अ) = ही ही अव्यय चूँकि (बज्झदि) व कर्म 3/1 अनि बाँधा जाता है [(कम्मेण) + (इति)] कम्मेण (कम्म) 3/1 कर्म के द्वारा इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (उवदेस) 1/1 उपदेश पुणो । बज्झदि कम्म त्ति (मूलशब्द) - उवदेसो - अन्वय- जीवो जेण भावेण विसये आगदं पेच्छदि जाणादि पुणो तेणेव रज्जदि कम्म त्ति बज्झदि उवदेसो। अर्थ- जीव जिस (शुभ-अशुभ) भाव से (इंद्रियों के) क्षेत्र में आई हुई (वस्तु) को देखता है, जानता है (तो जीव उसी का फल प्राप्त करता है)। चूँकि (वह) उसके साथ ही अनुरक्त हो जाता है (इसलिए) कर्म के द्वारा बाँधा जाता है। इस प्रकार उपदेश (है)। 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (99) For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85. फासेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं। अण्णोण्णस्सवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो। . . . पुग्गलाणं फासेहिं (फास) 3/2 स्पर्श गुणों से (पुग्गल) 6/2 पुद्गलों का बंधो (बंध) 1/1 बंध . जीवस्स (जीव) 6/1 .. जीव का रागमादीहिं [(राग)+(आदीहिं)] रागं (राग) द्वितीयार्थक' अव्यय राग से और आदीहिं (आदि) 3/2 इसी प्रकार और भी अण्णोण्णस्सवगाहो [(अण्णोण्णस्स)+(अवगाहो)] . अण्णोण्णस्स' (अण्णोण्ण) परस्पर में .. . 6/1 वि अवगाहो (अवगाह) 1/1 अन्तर्गमन पुग्गलजीवप्पगो [(पुग्गल)-(जीवप्पग) पुद्गल कर्म और 1/1 वि] चेतन जीव से निर्मित भणिदो (भण-भणिद) भूकृ 1/1 कहा गया अन्वय- फासेहिं पुग्गलाणं बंधो रागमादीहिं जीवस्स अण्णोण्णस्स अवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो। ___ अर्थ- स्पर्श गुणों (रूक्षता और स्निग्धता) से पुद्गलों का (आपस में) बंध (होता है)। राग से और इसी प्रकार और (कषायों) से भी जीव का (भावबंध) (होता है)। (पुद्गल और जीव का) (कषायों के कारण) परस्पर में अन्तर्गमन (भी) पुद्गल कर्म और चेतनजीव से निर्मित (आपसी) (बंध) कहा गया (है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (100) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86. सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया। पविसंति जहाजोगं चिटुंति हि जंति बझंति।। सपदेसो अप्पा तेसु पदेसेसु पुद्गल पुग्गला काया पविसंति जहाजोगं चित हि . (स-पदेस) 1/1 वि . प्रदेश-सहित (त) 1/1 सवि वह (अप्प) 1/1 आत्मा (त) 7/2 सवि उन (पदेस) 7/2 प्रदेशों में (पुग्गल) 1/2 (काय) 1/2 . समूह (पविस) व 3/2 सक प्रवेश करते हैं अव्यय . विधि-अनुसार (चिट्ठ) व 3/2 अक ठहरते हैं अव्यय निश्चय ही (जा) व 3/2 सक नष्ट होते हैं (बझंति) व कर्म 3/2अनि बाँधे जाते हैं जंति बझंति - अन्वय- सो अप्पा सपदेसो तेसु पदेसेसु पुग्गला काया हि जहाजोगं । पविसंति बझंति चिटुंति जंति। अर्थ- वह आत्मा प्रदेश-सहित (असंख्यात प्रदेशी) (होता है)। उन (आत्म) प्रदेशों में पुद्गल समूह निश्चय ही विधि-अनुसार प्रवेश करते हैं, बाँधे जाते हैं, ठहरते हैं (और) नष्ट होते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (101) - For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो || रत्तो बंधदि . कम्मं मुच्चदि कम्मे हिं गहिदप्पा सो बंधसमास जीव जाण णिच्छयदो (102) ( रत्त) भूकृ 1 / 1 अनिं (बंध) व 3/1 सक (कम्म) 2 / 1 (मुच्चदि) व कर्म 3 / 1 अनि (कम्म) 3/2 [(रागरहिद) + (अप्पा)] [(राग) - (रहिद) भूक अनि ( अप्प ) 1 / 1 ] (त) 1/1 सवि [(बंध) - (समास) 1/1] (जीव) 4/2 राग-युक्त बाँधता है कर्म को छुटकारा पाता है कर्मों से (जाण) आज्ञा 2 / 1 सक ( णिच्छयदो) अव्यय पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अन्वय- रत्तो कम्मं बंधदि रागरहिदप्पा कम्मेहिं मुच्चदि जीवाणं For Personal & Private Use Only -रहित णिच्छदो एसो बंधसमासो जाण । अर्थ - राग-युक्त (आसक्त) (जीव ) कर्म को बाँधता है, राग-रहित (अनासक्ति से युक्त) आत्मा कर्मों से छुटकारा पाता है। जीवों के लिए निश्चयपूर्वक यह बंध का संक्षेप (कथन है ) | (तुम) जानो । राग आत्मा यह बंध का संक्षेप जीवों के लिए जानो निश्चयपूर्वक प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88. परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो । । परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो असुहो मोहदोस सुहो व असुहो हवदि रागो (परिणाम) 5/1 (बंध) 1 / 1 (परिणाम) 1 / 1 [(राग) - (दोस)- (मोह) - (जुद ) भूक 1 / 1 अनि ] (असुह) 1 / 1 वि [(मोह) - (पदोस) 1 / 1] (सुह) 1/1 वि अव्यय ( असुह) 1 / 1 वि (हव) व 3/1 अक (राग) 1 / 1 अन्वय असुहो रागो सुहो व असुहो हवदि । प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) परिणाम से बंध परिणाम राग, द्वेष, मोह युक्त अशुभ मोह, द्वेष परिणामादो बंध परिणामो रागदोसमोहजुदो मोहपदोसो For Personal & Private Use Only शुभ और अर्थ - (अशुद्धोपयोग रूप ) परिणाम से बंध (होता है ) । परिणाम राग ( आसक्ति), द्वेष (शत्रुता) और मोह (आत्मविस्मृति) युक्त (होता है)। मोह (आत्मविस्मृति) और द्वेष (शत्रुता) अशुभ (होता है ) (तथा) राग शुभ और अशुभ होता है। अशुभ होता है राग (103) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89. सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु। __ परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये।। सुहपरिणामो पुण्णं पुण्य असुहो अशुभ .. पाव त्ति भणियमण्णेसु [(सुह) वि-(परिणाम) 1/1] शुभपरिणाम (पुण्ण) 1/1 (असुह) 1/1 वि [(पावो)+ (इति)] पावो (पाव) 1/1 वि पाप इति (अ) = पादपूरक [(भणिय) + (अण्णेसु)] भणियं (भण-भणिय) कहा गया भूकृ 1/1 अण्णेसु (अण्ण) 7/2 सवि पर के प्रति (परिणाम) 1/1 परिणाम [(ण) अ-(अण्ण) सवि- पर में नहीं (गद) भूकृ 1/1 अनि गया हुआ [(दुक्ख)-(क्खय)- दुःख के नाश (कारण) 1/1] का कारण (समय) 7/1 आगम में परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये अन्वय- अण्णेसु सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति परिणामो णण्णगदो समये दुक्खक्खयकारणं भणियं। अर्थ- पर के प्रति (जो) शुभ परिणाम (है) (वह) पुण्य (है), (जो) अशुभ (परिणाम) (है) (वह) पाप (है)। (तथा) (जो) (परिणाम) पर में गया हुआ नहीं (है) (वह) आगम में दुःख के नाश का कारण कहा गया (है)। (104) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90. भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा। अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो।। भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध मुहा थावरा तसा त्रस (भण-भणिद) भूक 1/2 कहे गये [(पुढवि)-(प्पमुहा) 1/2 वि] पृथ्वी वगैरह/आदि [(जीवणिकाया)+(अध)] [(जीव)-(णिकाय) 1/2] जीव-समूह अध (अ) = अब अब (थावर) 1/2 स्थावर अव्यय और (तस) 1/2 (अण्ण) 1/2 सवि अन्य (त) 1/2 सवि (जीव) 5/1 जीव से (जीव) 1/1 अव्यय अव्यय और (त) 5/1 सवि . (अण्ण). 1/1 वि अन्य अण्णा जीव जीवादो जीवो वि . य तेहिंदो अण्णो .. उनसे अन्वय- अध पुढविप्पमुहा थावरा य तसा जीवणिकाया भणिदा ते जीवादो अण्णा य जीवो वि तेहिंदो अण्णो। अर्थ- अब पृथ्वी वगैरह (आदि) स्थावर और त्रस (जो) जीव- समूह कहे गये हैं, वे सब (शुद्ध) जीव से अन्य है और (शुद्ध) जीव भी उनसे अन्य (है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (105) For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91. जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज। कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो।। णवि जाणदि अतः परमप्पाणं सहावमासेज्ज (ज) 1/1 सवि जो . अव्यय नहीं (जाण) व 3/1 सक जानता है अव्यय [(परं)+ (अप्पाणं)] परं (पर) 2/1 वि पर को ... अप्पाणं (अप्पाण) 2/1. स्व को [(सहावं)+(आसेज्ज)]. सहावं (सहाव) 2/1 स्वभाव को आसेज्ज (आसेज्ज) संकृ अनि अवलम्बन करके (कीर) व 3/1 सक करता है (अज्झवसाण) 2/1 चिंतन (अम्ह) 1/1 स [(मम)+ (इदं)+ (इति)] मम (अम्ह) 6/1 स इदं (इम) 1/1 स. इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (मोह) 5/1 मोह के कारण कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति यह मोहादो अन्वय- एवं जो सहावमासेज्ज परमप्पाणं णवि जाणदि मोहादो अज्झवसाणं कीरदि अहं ममेदं ति। अर्थ- अतः जो स्वभाव को अवलम्बन करके पर को (तथा) स्व को नहीं जानता (है) (वह) मोह के कारण (विपरीत) चिंतन करता है (कि) (पर) मैं (हूँ) (तथा) यह (पर) मेरा (है)। 1. गुणवाचक अस्त्रीलिंग संज्ञा शब्द (पु.नपुं. संज्ञा शब्द) जो किसी क्रिया या घटना का कारण बताता है, उसे पंचमी विभक्ति में रखा जाता है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 42) (106) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं।। कुव्वं सभावमादा (कुव्वं) वकृ 1/1 अनि ग्रहण करते हुए [(सभावं)+(आदा)] सभावं (सभाव) 2/1 स्वभाव को आदा (आद) 1/1 आत्मा हवदि (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय निश्चय ही कत्ता (कत्तु) 1/1 वि करनेवाला सगस्स (सग) 6/1 वि . स्व-संबंधी भावस्स (भाव) 6/1 क्रिया का पोग्गलदव्वमयाणं [(पोग्गल)-(दव्वमय) पुद्गल द्रव्यसंबंधी 6/2 वि] अव्यय नहीं अव्यय किन्तु (कत्तु) 1/1 वि करनेवाला सव्वभावाणं [(सव्व) सवि-(भाव) 6/2] सब क्रिया का कत्ता - अन्वय-आदा सभावं कुव्वं सगस्स भावस्स कत्ता हि हवदि दु पोग्गलदव्वमयाणं सव्वभावाणं कत्ता ण। अर्थ- आत्मा स्वभाव को ग्रहण करते हुए स्व-संबंधी क्रिया का करनेवाला निश्चय ही होता है किन्तु (वह) पुद्गल द्रव्यसंबंधी किसी भी क्रिया का करनेवाला नहीं (होता है)। प्रवचनसार (खण्ड-2) (107) For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 93. गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पुग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु॥ गेण्हदि णेव मुंचदि करेदि . न पोग्गलाणि कम्माणिं जीवो पुग्गलमज्झे * वट्टण्णवि (मूल शब्द) (गेण्ह) व 3/1 सक ग्रहण करता है अव्यय न ही अव्यय न.. (मुच) व 3/1 सक छोड़ता है (कर) व 3/1 सक - रचता है .. अव्यय अव्यय ही (पोग्गल) 2/2 पुद्गल .. (कम्म) 2/2 कर्मों को (जीव) 1/1 जीव [(पुग्गल)-(मज्झ) 7/1] पुद्गल के मध्य में [(वट्टण्ण)+(अवि)] , वट्टण्णो (वट्टण्ण) 1/1 वि रहनेवाला . अवि (अ) = भी [(सव्व) सवि-(काल) 7/2] सब कालों में . सव्वकालेसु अन्वय- जीवो सव्वकालेसु पुग्गलमज्झे वट्टण्णवि पोग्गलाणि कम्माणि णेव गेहदि ण मुंचदि ण हि करेदि। अर्थ- (शुद्ध) जीव सब कालों में पुद्गल के मध्य में (ही) रहनेवाला (है) (तो) भी (वह) पुद्गल कर्मों को न ही ग्रहण करता है, न छोड़ता है, न ही रचता है। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) (108) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94. स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स। आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं।। कत्ता स्स (त) 1/1 सवि वह इदाणिं अव्यय इस संसार में (कत्तु) 1/1 वि कर्ता अव्यय निस्संदेह सगपरिणामस्स [(सग) वि-(परिणाम) 6/1] स्व-संबंधी परिवर्तन/ भाव का दव्वजादस्स [(दव्व)-(जाद). पुद्गल कर्म से उत्पन्न भूक 6/1] आदीयदे (आदा+ईय) व कर्म 3/1 पकड़ा जाता है कदाई अव्यय विमुच्चदे (विमुच्चदे) व कर्म 3/1 अनि छोड़ दिया जाता है कम्मधूलीहिं.. [(कम्म)-(धूलि) 3/2] कर्मधूलि से कभी अन्वय- स इदाणिं दव्वजादस्स सगपरिणामस्स सं कत्ता कदाई कम्मधूलीहिं आदीयदे विमुच्चदे। अर्थ- वह (कर्म से युक्त आत्मा) इस (आवागमनात्मक) संसार में पुद्गल कर्म से उत्पन्न हुए स्व-संबंधी परिवर्तन/भाव का निस्सन्देह कर्ता (है) (तथा वह) कभी कर्मधूलि से पकड़ा जाता है (और) (किसी समय में) छोड़ दिया जाता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) प्रवचन (109) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 95. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावहिं।। परिणमदि (परिणम) व 3/1 सक परिणमन करता है जदा अव्यय जब आत्मा शुभ में .. अप्पाः (अप्प) 1/1 सुहम्हि (सुह) 7/1 वि असुहम्हि (असुह) 7/1वि रागदोसजुदो [(राग)-(दोस)-(जुद) भूकृ 1/1 अनि (त) 2/1 सवि पविसदि (पविस) व 3/1 सक कम्मरयं [(कम्म)-(रय) 1/1] णाणावरणादिभावेहिं [(णाणावरण)-(आदि) (भाव) 3/2] अशुभ में राग, द्वेष (भाव) से युक्त उसमें प्रवेश करती है कर्मरूपी धूल ज्ञानावरण और अन्य विकृतियों के साथ अन्वय- रागदोसजुदो अप्पा जदा सुहम्हि असुहम्हि परिणमदि णाणावरणादिभावेहि कम्मरयं तं पविसदि। .. ___ अर्थ- राग-द्वेष (भाव) से युक्त आत्मा जब शुभ-अशुभ (भाव) में परिणमन करता है (तो) ज्ञानावरण और अन्य विकृतियों के साथ कर्मरूपी धूल उसमें प्रवेश करती है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (110) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपदेसो सो सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । कम्मरजेहिं सिलिट्टो बंधो त्ति परूविदो समये ।। अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंध परूविदो समये (स-पदेस) 1/1 वि (त) 1 / 1 सवि (अप्प ) 1 / 1 (कसायिद ) 1 / 1 वि [ ( मोह) - (राग) - ( दोस) 3/2] [ ( कम्म ) - (रज) 3 / 2 ] (सिलिट्ठ ) भूक 1 / 1 अनि [(बंधो) - (इति)] बंध (बंध) 1/1 इति (अ) = इस प्रकार (परूविद) भूक 1 / 1 अनि (समय) 7 / 1 प्रदेश- सहित वह आत्मा ग्रस्त मोह, राग और द्वेष से कर्मरूपी धूल से संयुक्त अन्वय- सो सपदेसो अप्पा मोहरागदोसेहिं कसायिदो कम्मरजेहिं बंध इस प्रकार कहा गया आगम में सिलिट्ठो समये बंधो त्ति परूविदो । अर्थ- वह प्रदेश- सहित आत्मा (जब) मोह, राग और द्वेष से ग्रस्त (होता है) (तब ) (वह) कर्मरूपी धूल से संयुक्त (हो जाता है)। आगम में इस प्रकार बंध (कर्मबंध) कहा गया ( है ) । प्रवचनसार (खण्ड-2 ) For Personal & Private Use Only (111) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97. एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिवो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो।। एसो यह . बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्टो अरहतेहिं जदीणं (एत) 1/1 सवि [(बंध)-(समास) 1/1] (जीव) 4/2 (णिच्छय) 3/1 (णिट्ठि) भूकृ 1/1 अनि (अरहत) 3/2 (जदि) 4/2 (ववहार) 1/1 अव्यय (भण-भणिद) भूकृ 1/1 बंध का संक्षेप · जीवों के लिए वास्तविकरूप से कहा गया अरहंतों के द्वारा मुनियों के लिए ववहारो व्यवहार अण्णहा अन्य प्रकार से भणिदो कहा गया अन्वय- एसो जीवाणं बंधसमासो अरहंतेहिं जदीणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो अण्णहा ववहारो भणिदो। अर्थ- (पूर्वोक्त प्रकार से वर्णित) यह जीवों के (कर्म) बंध का संक्षेप (है)। अरहंतों के द्वारा मुनियों के लिए (यह संक्षेप) निश्चयनय से कहा गया (है)। (जो) अन्य प्रकार से (विस्तार) (है) (वह) व्यवहार कहा गया (है)। नोटः सम्पादक द्वारा अनूदित (112) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98. ण यदि जो दु ममत्तिं अहं 139 दं ण चयदि जो द ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु । सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ।। देहदविणेसु सो सामण्णं चत्ता पडवण्णो' होदि उम्मग्गं अव्यय (चय) व 3 / 1 सक (ज) 1 / 1 सवि प्रवचनसार ( खण्ड - 2) अव्यय (ममत्ति) 2 / 1 (अम्ह) 1/1 स [(मम) + (इदं) + (इति)] मम (अम्ह) 6/1 स इदं (इम) 1/1 स इति (अ) = इस प्रकार [(देह) - (दविण) 7/2] (त) 1 / 1 सवि (सामण्ण) 2 / 1 अनि ( पडिवण्ण) भूक 1 / 1 अनि (हो) व 3 / 1 अक (उम्मग्ग) 2 / 1 नहीं छोड़ता है जो और ममता को मैं For Personal & Private Use Only मेरा यह इस प्रकार शरीर और संपत्ति में अन्वय- देहदविणेसु दु अहं ममेदं ति जो ममत्तिं ण चयदि सो सामण्णं चत्ता होदि उम्मग्गं पडिवण्णो । अर्थ- शरीर और संपत्ति में मैं (यह हूँ) और मेरा यह (है) इस प्रकार जो ममता को नहीं छोड़ता है, वह श्रमणता को छोड़कर रहता है। (इस प्रकार) (उसने) विपरीत मार्ग ग्रहण किया ( है ) । वह श्रमणता को छोड़कर 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। ग्रहण किया रहता है विपरीत मार्ग (113) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 99. णाहं होमि परेसिंण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा।। नहीं . FEE णाणमहमेक्को [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 सं (हो) व 1/1 अक (पर) 6/2 वि पर का अव्यय ...नहीं . (अम्ह) 6/1 स मेरे . .. (पर) 1/2 वि (संति) व 3/2 अक अनि हैं [(णाणं)+(अहं)+ (एक्को)] णाणं (णाण) 1/1 ज्ञान अहं (अम्ह) 1/1 स मैं । एक्को (एक्क) 1/1 वि अकेला अव्यय इस प्रकार (ज) 1/1 सवि जो (झा) व 3/1 सक चिंतन करता है 'य' विकरण (झाण) 7/1 . ध्यान में (त) 1/1 सवि वह (अप्पाण) 2/1 आत्मा में (हव) व 3/1 अक होता है (झादु) 1/1 वि ध्यान करनेवाला झायदि झाणे . अप्पाणं हवदि झादा अन्वय- अहं परेसिं ण होमि परे मे ण संति अहं णाणं एक्को इदि जो झाणे झायदि सो अप्पाणं झादा हवदि। अर्थ- मैं पर का नहीं हैं, (और) पर मेरे नहीं हैं, मैं ज्ञान (रूप हूँ) अकेला (हँ)। इस प्रकार जो ध्यान में चिंतन करता है, वह आत्मा में ध्यान करनेवाला होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (114) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100. एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं। धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्ध।। णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं धुवमचलमणालंबं अव्यय इस प्रकार (णाणप्पाण) 2/1 वि ज्ञानस्वरूप (दसणभूद) 2/1 वि दर्शनमय [(अदिदिय)-(महत्थ) अतीन्द्रिय, महापदार्थ 2/1 वि] [(धुवं)+(अचलं)+(अणालंब)] धुवं (धुव) 2/1 वि शाश्वत अचलं (अचल) 2/1 वि दृढ़ अणालंबं (अणालंब) 2/1 वि (पर के) आलम्बन से रहित [(मण्णे)+(अहं)] मण्णे (मण्णे) व 1/1 सक अनि मानता हूँ अहं (अम्ह) 1/1 स मैं (अप्पग) 2/1 आत्मा को (सुद्ध) 2/1 वि शुद्ध मण्णेऽहं अप्पगं अन्वय- एवं अहं अप्पगं सुद्धं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं धुवमचलमणालंबं मण्णे। अर्थ- इस प्रकार मैं आत्मा को शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, दर्शनमय, अतीन्द्रिय, महापदार्थ, शाश्वत, (स्वभाव में) दृढ़, (पर के) आलम्बन से रहित (स्वाधीन) मानता हूँ।. प्रवचनसार (खण्ड-2) (115) For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101. देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तमित्तजणा । जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा || देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तु मित्तजणा जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा (देह) 1/2 अव्यय (दविण ) 1/2 अव्यय [(सुह) - (दुक्ख ) 1/2] [(वा) + (अध)] वा (अ) = और और अध (अ) = इसी भाँति इसी भाँति [ ( सत्तु ) - ( मित्त) - ( जण) 1 / 2] शत्रु-मित्र लोग (जीव ) 6/1 जीव के अव्यय (संति) व 3 / 2 अक अनि (धुव) 1/2 वि [(धुव) + (उवओग) + (अप्पगो)] [(धुव) - (उवओगप्पग) 1/1 fa] (अप्प ) 1/1 शरीर अथवा संपत्ति अथवा सुख-दुःख आत्मा अन्वय- देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा जीवस्स ण संति धुवोवओगप्पगो अप्पा धुवा । अर्थ- शरीर अथवा सम्पत्ति अथवा सुख - दुःख और इसी भाँति शत्रुमित्र लोग जीव के शाश्वत नहीं होते हैं। (केवल) उपयोगस्वरूपवाला आत्मा शाश्वत (है)। (116) For Personal & Private Use Only नहीं होते हैं शाश्वत शाश्वत, उपयोगस्वरूपवाला प्रवचनसार (खण्ड-2 2) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102. जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंटिं ॥ जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गठि (ज) 1 / 1 सवि अव्यय संकृ (झा) व 3 / 1 सक ( पर) 2 / 1 वि जो इस प्रकार जानकर ध्यान करता है परम आत्मा ( अप्पग) 2 / 1 [(विसुद्ध ) + (अप्पा)] [ ( विसुद्ध ) वि - (अप्प ) 1 / 1 ] सद्गुणी आत्मा [(सागारो) + (अणागारो) ] सागारो (सांगार) 1/1 अणागारो (अणागार) 1/1 (खव) व 3 / 1 सक (त) 1 / 1 सवि [ ( मोह) - ( दुग्गंठि ) 2 / 1 ] श्रावक मुनि नाश करता है वह मोहरूपी कठिन गाँठ अन्वय- जो सांगारोऽणागारो एवं जाणित्ता परं अप्पगं झादि सो विसुद्धप्पा मोहदुग्गंठि खवेदि । अर्थ - जो श्रावक (या) मुनि (आत्मा के स्वरूप को ) इस प्रकार जानकर परम आत्मा का ध्यान करता है, वह सद्गुणी आत्मा मोहरूपी ( आत्मविस्मृतिरूपी) कठिन गाँठ का नाश करता है। प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) For Personal & Private Use Only (117) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103. जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि।। . . णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे होज्ज समसुहदुक्खो (ज) 1/1 सवि . जो [(णिहद) भूकृ अनि-(मोह)- नष्ट कर दी गयी (गंठि) 1/1] मोहरूपी गाँठ [(राग)-(पदोस) 2/2] राग-द्वेष .. . (खविय-खवीय) संकृ नष्ट करके छन्द की पूर्ति हेतु ‘खविय का खंबीय' किया गया है (सामण्ण) 7/1 श्रमण अवस्था में (होज्ज) व 3/1 अक होता है (समसुहदुक्ख) 1/1 वि समान सुखदुःखवाला (त) 1/1 सवि वह (सोक्ख) 2/1 सुख को (अक्खय) 2/1 वि. अक्षय (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है सोक्खं अक्खयं लहदि अन्वय- णिहदमोहगंठी जो सामण्णे रागपदोसे खवीय समसुहदुक्खो होज्जं सो अक्खयं सोक्खं लहदि। अर्थ- (जिस श्रावक या मुनि के द्वारा) मोहरूपी (आत्मविस्मृतिरूपी) गाँठ नष्ट कर दी गई है, जो श्रमण अवस्था में राग-द्वेष नष्ट करके समान सुखदुःखवाला होता है, वह अक्षय सुख को प्राप्त करता है। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु अनुस्वार का आगम हुआ है। (118) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा || जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता समो सहावे सो अप्पाणं' हवदि झादा 1. (ज) 1 / 1 सवि [ (खविद) भूकृ - (मोह) - ( कलुस) 1 / 1 ] [ ( विसय) - (विरत्त) प्रवचनसार ( खण्ड - 2) भूक 1 / 1 अनि ] (मणो) 2 / 1 अनि मन को रोककर (णिरंभ + इत्ता) संकृ (समवदि) भूकृ 1 / 1 अनि अवस्थित स्वभाव में (सहाव ) 7/1 (त) 1 / 1 सवि (अप्पाण) 2/1 (हव) व 3 / 1 अक (झादु) 1 / 1 वि जो नष्ट कर दी गई मोहरूपी मलिनता विषयों से विरक्त अन्वय समवद्विदो सो अप्पाणं झादा हवदि । अर्थ- (जिसके द्वारा) मोहरूपी (आत्मविस्मृतिरूपी) मलिनता नष्ट कर दी गई (है), (जो) विषयों से विरक्त (है), (तथा) जो मन को रोककर स्वभाव में अवस्थित (है) वह आत्मा में ध्यान लगानेवाला होता है। खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो जो मणो णिरुंभित्ता सहावे वह आत्मा में होता है ध्यान लगानेवाला कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेंम - प्राकृत - व्याकरणः 3-137) For Personal & Private Use Only (119) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105. णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्ह। णेयंतगदो समणो झादि कमढे असंदेहो।। णिहदघणघादिकम्मो [(णिहद) भूक अनि-(घन)वि- प्रगाढ़ घातिया कर्म (घादि) वि-(कम्म) 1/1] नष्ट कर दिये गये पच्चक्खं (पच्चक्खं) अव्यय प्रत्यक्ष रूप से द्वितीयार्थक अव्यय सव्वभावतच्चण्हू [(सव्व) सवि-(भाव)- समस्त पदार्थ के (तच्चण्ह) 1/1 वि] स्वरूप का जाननेवाला णेयंतगदो [(णेय) विधिकृ.अनि- .. जानने योग्य (पदार्थों (अंतगद) भूकृ 1/1 अनि ] का) अंत पा लिया गया समणो (समण) 1/1 श्रमण झादि (झा) व 3/1 सक ध्यान करता है कमढें [(कं)-(अट्ठ)] . कं (क) 2/1 सवि किस . . अट्ठ (अट्ठ) 2/1 पदार्थ असंदेहो (असंदेह) 1/1 वि संदेह-रहित अन्वय- णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू णेयंतगदो असंदेहो समणो कमढें झादि। अर्थ- (जिसके द्वारा) प्रगाढ़ घातियाकर्म नष्ट कर दिये गये हैं), (जो) प्रत्यक्ष रूप से समस्त पदार्थों के स्वरूप को जाननेवाला (है), (तथा) (जिसके द्वारा) जानने योग्य (पदार्थों का) अंत पा लिया गया (है) (वह) संदेहरहित श्रमण किस पदार्थ का ध्यान करता है? 1. आत्म-स्वरूप को आच्छादित करनेवाले कर्म। (120) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106. सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ।। सव्वाबाधविजुत्तो [ ( सव्व ) ' सवि - (बाध) (वित्त) भूकृ 1 / 1 अनि ] समंतसव्वक्खसोक्ख [(समंत) 2 अ- (सव्व) सवि णाणड्डो भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं 1. 2. (अक्ख) - (सोक्ख) ( णाण) - ( अड्ड) 1 / 1 वि] (भूद) भूकृ 1 / 1 अनि ( अक्खातीद) 1 / 1 वि प्रवचनसार (खण्ड-2) (झा) व 3 / 1 सक ( अणक्ख) 1 / 1 वि अन्वय-सव्वाबाधविजुत्तो अक्खातीदो अणक्खो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो भूदो परं सोक्खं झादि । अर्थ- समस्त बाधाओं से रहित, इन्द्रियज्ञान से परे, इन्द्रिय-विषयों से रहित, पूरी तरह से समस्त इन्द्रियों के सुख और ज्ञान से समृद्ध हुआ ( श्रमण ) परम सुख का ध्यान करता है। (पर) 2 / 1 वि (सोक्ख) 2 / 1 समस्त बाधाओं से रहित पूरी तरह से समस्त इन्द्रियों के सुख और ज्ञान से समृद्ध हुआ इन्द्रियज्ञान से परे ध्यान करता है इन्द्रिय-विषयों से समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है। (प्राकृत-व्याकरण, पृ. 21 ) (हेम - 1 / 4 ) यहाँ छन्द की पूर्ति हेतु समंता - समंत किया गया है। रहित परम सुखका For Personal & Private Use Only (121) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107. एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्टिदा समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।। सिद्धा श्रमण अव्यय इस प्रकार . जिणा (जिण) 1/2 . सामान्य केवली जिणिंदा (जिणिंद) 1/2 तीर्थंकर (सिद्ध) 1/2 वि सिद्ध . . मग्गं (मग्ग) 2/1 मार्ग की ओर समुट्ठिदा (समुट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि उचित प्रकार से प्रयत्नशील समणा (समण) 1/2 जादा (जाद) भूकृ 1/2 [(णमो)+ (अत्थु)] णमो (अ) = नमस्कार नमस्कार . अत्थु (अत्थु) विधि 3/1 होवे अक अनि तेसिं (त) 4/2 सवि उन सबको तस्स (त) 4/1 सवि उस अव्यय और णिव्वाणमग्गस्स- [(णिव्वाण)-(मग्ग) 4/1] मोक्षमार्ग को णमोत्थु अन्वय- एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा जादा समणा तेसिं य तस्स णिव्वाणमग्गस्स णमोत्थु। ___ अर्थ- इस प्रकार सामान्य केवली, तीर्थंकर, सिद्ध (तथा) मार्ग की ओर उचित प्रकार से प्रयत्नशील हुए श्रमण- उन सबको और उस मोक्षमार्ग को नमस्कार होवे। 1. 2. 'की ओर' के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। णमो' के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। (122) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108. तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण। परिवज्जामि ममत्तिं उवट्टिदो णिम्ममत्तम्मि।। तम्हा अव्यय इसलिए और अव्यय जानकर आत्मा को ज्ञायक स्वभाव से जाणित्ता (जाण+इत्ता) संकृ अप्पाणं (अप्पाण) 2/1. जाणगं (जाणग) 2/1 वि सभावेण (सभाव) 3/1 . परिवज्जामि (परिवज्ज) व 1/1 सक ममत्तिं (ममत्ति) 2/1 उवट्टिदो . (उवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि णिम्ममत्तम्मि.. (णिम्ममत्त) 7/1 छोड़ता हूँ ममता को स्थित ममता-रहितता में . ___ अन्वय- तह तम्हा सभावेण जाणगं अप्पाणं जाणित्ता ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तम्मि उवट्ठिदो। अर्थ- और इसलिए स्वभाव से (ही) (जो ज्ञायक है) (उस) ज्ञायक आत्मा को जानकर (मैं) ममता को छोड़ता हूँ, (और) ममता-रहितता में स्थित (होता हूँ)। प्रवचनसार (खण्ड-2) . (123) For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 1. अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि। ___ तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया।। जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिवा।। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा।। 3. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्त। . . गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति॥ सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सह पज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उष्पादव्वयधुवत्तेहिं।। इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं। उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं।। 6. दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा। सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ।। 7. सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो।। (124) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण।। उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वं हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।। 10. समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदतुहिं। एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ।। 11. पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो। दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणटुं ण उप्पण्णं।। 12. परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिटुं। तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति। . 13. ण हवदि जदि सहव्वं असद्धवं हवदि तं कहं दव्वं। हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता।। 14. पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं।। 15. सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो। प्रवचनसार (खण्ड-2) (125) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 16. जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो। __एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्टो।। 17. जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो। सदवट्ठिदं सहावे दव्व त्ति जिणोवदेसोय।। 18. णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओ त्तीह वा विणा दव्वं। दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता।। . 19.. एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि। 20. जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो। किं दव्वत्तं पजहदि ण चयदि अण्णो कहं होदि। 21. मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि।। 22. दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्टिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो।। 23. अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं। पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा।। (126) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता। किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो।। 25. कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि।। 26. णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता। ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि।। 27. जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुन्भवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा।। 28. तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे। संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स।। 29. आदा कम्ममलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं। तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो।। 30. परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता। 31. परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा।। प्रवचनसार (खण्ड-2) (127) For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्ध। ___ तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा।। 33. अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी। तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो॥ 34. कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध।। 35. · दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवजोगमओ। पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि अज्जीवं।। 36. पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्डो। वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु॥ 37. उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स। परिणामादो जायंते संघादादो व भेदादो।। 38. लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णाद। तेऽतब्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेया।। 39. मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। दव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा।। (128) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियंतस्स य सहो सो पोग्गलो चित्तो।। 41. आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं। धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा।। 42. कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो। णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं।। 43. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं। सपदेसेहिं असंखा णत्थि पदेस त्ति कालस्स।। 44. लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहि आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा।। 45. जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं। अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो।। 46. समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स। वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स।। 47. वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुव्वो। ___जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी। प्रवचनसार (खण्ड-2) (129) For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. आगासमणुणिविटुं आगासपदेससण्णया भणिदं। सव्वेसिं च अणूणं सक्कादि तं देदुमवगासं।। 49. एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य। दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स।। 50. उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एकसमयम्हि। समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि।। 51. · एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा। समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसब्भावो।। 52. जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं तु तच्चदो णाद्। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदो।। 53. सपदेसेहिं समग्गो लोगो अडेहिं णिट्ठिदो णिच्चो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्केण संबद्धो।। 54. इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणो य। आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होति पाणा ते।। 55. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं। सो जीवो ते पाणा पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता।। (130) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहि। उवभुंजदि कम्मफलं बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं।। 57. पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं। जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं।। 58. आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे। ण चयदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु विसयेसु।। 59. जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति।। 60. अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्यंतरम्मि संभूदो। अत्थो पज्जाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं।। 61. णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा। पज्जाया जीवाणं . उदयादीहिं णामकम्मस्स।। 62. तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खादं। जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि।। 63. अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो। सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि।। प्रवचनसार (खण्ड-2) (131) For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 64. उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि।। 65. जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स।। 66. विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोटिजुदो। .. उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो। 67. . असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए।। 68. णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।। 69. देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिठ्ठा। पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं।। 70. णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं। तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स।। 71. अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो। गिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि।। (132) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं। परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि।। 73. णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा। समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहीणा।। 74. णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो।। 75. दुपदेसादि खंधा सुहमा वा वादरा ससंठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते।। 76. ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। सुहुमेहि बादरेहि य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं।। कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा।। 78. ते ते कम्मत्तगदा. पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स। संजायंते देहा देहतरसंकमं पप्पा।। 79. ओरालिओ य देहो देहो वेउविओ य तेजइओ। आहारय कम्मइओ पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे।। प्रवचनसार (खण्ड-2) (133) For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसह।। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिटुसंठाणं। 81. मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं। तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्म।। 82. रूवादिएहि रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि।.. दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि।। 83. उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो। 84. भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये। रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो।। 85. फासेहिं पुगलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं। अण्णोण्णस्सवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो।। 86. सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पुग्गला काया। पविसंति जहाजोगं चिटुंति हि जंति बज्झंति।। 87. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो।। (134) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88. परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो। असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो।। 89. सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये।। 90. भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा। अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो।। 91. जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज। कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो।। 92. कुव्वं सभावमादा हबदि हि कत्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं।। गेण्हदि.णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पुग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु।। 94. स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स। आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं।। 95. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावहिं।। प्रवचनसार (खण्ड-2) (135) For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96. सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहि। कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये।। 97. एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्टो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो।। 98. ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु।.. सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्ग।। 99. · णाहं होमि परेसिंण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा।। 100. एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं। धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्ध।। 101. देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा। 102. जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं।। 103. जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि।। (136) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवट्टिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ।। 105. णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । णेयंतगदो समणो झादि कमठ्ठे असंदेहो ।। 106. सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ।। 107. एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ।। 108. तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवज्जामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्मि ।। प्रवचनसार ( खण्ड - 2) For Personal & Private Use Only (137) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 . संज्ञा-कोश संज्ञा शब्द अर्थ लिंग गा.सं. अक्ख इन्द्रिय अज्झवसाण अट्ठ अणंतत्त अणगार 65 . अणागार मुनि अणु अण्णत्त अकारान्त नपुं. 106 अकारान्त नपुं. 91 .. आशय अकारान्त पु., नपु. 10, 51 पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 32, 53, 105 अनन्तता अकारान्त नपुं. 72 मुनि अकारान्त पु. अकारान्त पु. परमाणु अकारान्त पु. ____48, 72, 73, 74 अन्यत्व अकारान्त नपुं. तादात्म्य का अभाव अकारान्त पु. 14, 15, 16 भिन्न लक्षण पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 1, 7, 8, 47 द्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 52 जीव अकारान्त पु., नपुं. 60 परिवर्तन अकारान्त पु. विपरीत अर्थ अकारान्त पु. 52 अस्तित्व अस्तिकाय अकारान्त पु. अतब्भाव 38 अत्थ अत्यंतर अकारान्त नपुं. अत्थि अत्थिकाय (138) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थित्त अधम्म अस्तित्वता अधर्म आत्मा अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अप्प 60 36, 43, 44 25, 33, 34, 42, 63,76, 81, 86, 87, 95, 96, 101, 102 स्वभाव अप्पग आत्मा आत्मा अप्पाण स्व 91 देव अभाव न होना अभाव अमर अरहंत अरहंत अलोग अलोक अवगास अवकाश अवगाह अवगाहन अन्तर्गमन . आउ आयु. .. आगास आकाश आणप्पाण श्वासोच्छवास आद आत्मा अकारान्त पु. 33 अकारान्त पु. 59, 67, 100, 102 अकारान्त पु. 34, 99, 104, 108 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 16, 64 अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 85 उकारान्त नपुं. 54 अकारान्त पु.,नपुं. 36,41,43,46,48 अकारान्त पु. 54 अकारान्त पु. 2, 29, 30, 31, 33, 58,92 प्रवचनसार (खण्ड-2) (139) For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि क्षति आबाध इंदिय उदय उप्पाद उत्पाद उब्भव उम्मग्ग अन्य इकारान्त पु. . 56, 57, 60, 95 इसी प्रकार और भी इकारान्त पु. 59,85 . . आदि इकारान्त पु.,नपुं. 61, 82 आरंभ इकारान्त पु. 72, 75 प्रथम इकारान्त पु. 73 इसी प्रकार अन्य इकारान्त पु. 81, 82 अकारान्त पु. 57 .. इन्द्रिय अकारान्त पु., नपुं. 39, 54, 59 . उदय अकारान्त पु. अकारान्त पु. 3, 4, 8, 9, 37, 50 उद्भव अकारान्त पु. 45 कुमार्ग अकारान्त पु. विपरीत मार्ग अकारान्त पुः उपयोग अकारान्त पु. 35, 42, 59, 63, 64, 65, 66, 67 उपदेश अकारान्त पु. 17,84 अकारान्त पु., नपुं. 25, 29, 30, 31, 33, 34, 56, 57, 58, 59, 77, 79, 84, 87, 93, 94, 95, 96, 105 कार्य अकारान्त पु., नपुं. 32 कर्मत्व अकारान्त नपुं. 78 उवओग उवदेस कम्म कर्म कम्मत्त (140) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मत्तण करण कलुस कसाअ काय कारण कारणदा काल कालाणु किरिया क्खय खंध खण. गंठि गंध गमण ग्गहण गुण कर्मत्व अकारान्त नपुं. साधन अकारान्त नपुं. मलिनता (मैल) अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. आकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. कषाय राशि समूह कारण कारणता काल कालाणु क्रिया नाश स्कन्ध क्षण गाँठ गंध गमन ग्रहण गुण अंश प्रवचनसार (खण्ड-2) 77 34 104 66 43, 76 78, 86 68, 89 41 4, 36, 42, 43, 44, 47, 49, 51, 93 उकारान्त पु. 51 आकारान्त स्त्री. 24, 28, 30 अकारान्त पु. 89 अकारान्त पु. 75, 77 अकारान्त पु. 27 इकारान्त पु., स्त्री. 103 अकारान्त पु. 40 अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त नपुं. 80 अकारान्त पु., नपुं. 4, 12, 15, 16, 17, 18, 38, 39, 41, 42, 80, 81, 82 अकारान्त पु., नपुं. 74 For Personal & Private Use Only (141) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा गुणंतर गोट्टि चय चेदणा जण संग्रह चेतना लोक लोग जदि जिन जिणवर जिणिंद अन्य गुण अकारान्त पु., नपुं. 12 इकारान्त स्त्री. 66 अकारान्त पु. 64 आकारान्त स्त्री. 31, 35, 80 अकारान्त पु. 27 अकारान्त पु. 101 इकारान्त पु. 97 जलकाय अकारान्त पु. 75 जिनेन्द्रदेव अकारान्त पु. 6 अकारान्त पु. 17 सामान्य केवली अकारान्त पु. 107 जिनश्रेष्ठ अकारान्त पु. अर्हन्त देव अकारान्त पु. 65 तीर्थंकर अकारान्त पु. 107 .. . जीव अकारान्त पु., नपुं. 2, 20, 26, 32, 35, 36, 38, 43, 44, 53, 54,55, 56, 57, 61, 64, 65, 77, 78, 80, 83, 84,85, 87, 90, 93, 97, 101 ध्यान अकारान्त पु. 99 स्थिति अकारान्त पु., नपुं. 41 स्थिति (ध्रौव्य) इकारान्त स्त्री. 7, 10, 51 जीव झाण ठाण ठिदि (142) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णभ आकाश णर UNUT णाम णामकम्म णारय 7, 10 स्थिति (ध्रौव्य) इकारान्त स्त्री. 9,37 अकारान्त नपुं. 44, 45 मनुष्य अकारान्त पु. 20, 25, 26, 61 ज्ञान अकारान्त नपुं. 31, 32, 33, 63, 99, 106 नाम (कर्म) अकारान्त नपुं. नामकर्म अकारान्त नपुं. 26, 61 णाणावरण ज्ञानावरण अकारान्त नपुं. 57, 95 नारकी अकारान्त नपुं. 26, 61 णास विनाश अकारान्त पुं. नाश अकारान्त पुं. णिकाय समूह अकारान्त नपुं. णिच्छय निश्चय · अकारान्त पु. णिद्ध . स्निग्धता अकारान्त नपुं. स्निग्धता अकारान्त नपुं. 72, 74 णिम्ममत्त ममता-रहितता अकारान्त नपुं. णिव्वाण मोक्ष अकारान्त नपुं. 107 णेरइय नारकी . . अकारान्त पु. तक्काल . वह अवसर. अकारान्त पु. द्रव्य (मूल प्रकृति)अकारान्त नपुं. 16 यथार्थ अकारान्त नपुं. तदभाव तादात्म्य अकारान्त पु. तब्भव तादात्म्य अकारान्त पु. अकारा णिद्धत्तण 108 प्रवचनसार (खण्ड-2) (143) For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तम्मयत्त तस तिरिय तेउ तेज तेज थावर दसण दव्व द्रव्य एकरूपता अकारान्त नपु.. 22 त्रस अकारान्त पु. 90 . . . तिर्यंच अकारान्त पु., नपुं. 25, 26, 61 अग्निकाय उकारान्त पुं. 75 अकारान्त पुं. 79 स्थावर अकारान्त पुं. 90 दर्शन अकारान्त पु., नपुं. 63, 100 . अकारान्त पु., नपुं. 1,3, 4, 6, 7, 9,10, 11, 12, 13, 16, 17, 18, 19, 22, 23, 28, 35, 38, 39, 41, 46, 49, 55, 62, 69, 82 अकारान्त पुः, नपुं. 94 द्रव्यता अकारान्त नपुं. 18, 20 द्रव्यदृष्टि अकारान्त पु., नपुं. 19 सम्पत्ति अकारान्त नपुं. 98, 101 द्रव्य अकारान्त नपुं. 62 अकारान्त नपुं. 67 अकारान्त पु., नपुं. 32, 89, 101, 103 कठिन गाँठ इकारान्त स्त्री. 102 खोटा मन अकारान्त नपुं. 66 कषायोत्तेजक साहित्य इकारान्त स्त्री. 66 अकारान्त पु., नपुं. 21 पुद्गल कर्म दव्वत्त दव्वत्थ दविण दविय विषय दुक्ख दुःख दुग्गंठि दुच्चित्त दुस्सुदि देव व (144) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म स्वभाव धुवत्त अकारान्त पु. 47 अकारान्त पु., नपुं. 58, 78 68, 69, 70, 79, 98, 101 अकारान्त पु. 88, 95, 96 अकारान्त पु., नपुं. 5 अकारान्त पु., नपुं. 24,36, 41, 43, 44 अकारान्त नपुं. 3, 4 इकारान्त स्त्री. 94 अकारान्त पु. 19 अकारान्त पु. 4, 11, 15, 18, 60 अकारान्त पु. 1, 2, 9, 12, 61 अकारान्त पु. 23 अकारान्त पु. 43, 45, 46, 48, 49, 52, 71, 75, धर्म ध्रुवत्व धूलि पर्यायदृष्टि पर्याय धूलि पज्जयत्थ पज्जाअ पज्जाय पर्याय प्रकार पदेस प्रदेश द्वेष पदेसत्त... प्रदेशता पदोस पद्धंस अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 88, 103 अकारान्त पु. 50 उकारान्त पु. 45, 69, 71 इकारान्त स्त्री. 77 परमाणु नाश परमाणु परिणमन परिणइ प्रवचनसार (खण्ड-2) . . (145) For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम (परिणम ) परियंत पाण पादुब्भाव पिंड पुग्गल पुढवि पुढवी पुण पुधत्त पोग्गल प्पदेस प्पभेद प्पाण (146) परिणमन परिणाम 7, 17, 37, 73,75 29,30, 33, 88, 89 परिणमन स्वभाव अकारान्त पु. 72 परिवर्तन अकारान्त पु. 94 अकारान्त पु. 40 अकारान्त पु., नपुं. 53, 54, 55, 56, 57, 58, 59 19 तक (सीमा) प्राण उत्पत्ति समूह पुद्गल पृथ्वीकाय पृथ्वी महास्थूल पुण्य पृथकता पुद्गल प्रदेश भेद प्राण अकारान्त पु. अकारान्त पु. अंकारान्त पुः अकारान्त पु. 69, 70 अकारान्त पु., नपुं. 76, 79, 85, 86, 93 75 90 40 अकारान्त पु., नपुं. 89 अकारान्त नपुं. 14 अकारान्त पु., नपुं. 35, 36, 37, 39, 40, 43, 44, 55, 69, 70,78, 92, 93 अकारान्त 45 अकारान्त पु., नपुं. 60 अकारान्त पु., नपुं. 54 इकारान्त स्त्री. इकारान्त स्त्री. ईकारान्त स्त्री. For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल फास बंध बल बाध भंग भव भाव भेद मग्ग मज्झ मण मणुव ममत्त फल स्पर्श बंध प्रवचनसार (खण्ड-2) अकारान्त पु., नपुं 31, 32, 33, 34,56 अकारान्त पु., नपुं. 40, 81, 85 अकारान्त पु. बल अकारान्त पु. बाधा अकारान्त पु. नाश अकारान्त पुं. विनाश अकारान्त पुं. उत्पत्ति अकारान्त पुं. वास्तविक सत्य / अंकारान्त पु. परमार्थ भाव अकारान्त पु. रूप अकारान्त पु. क्रिया अकारान्त पु. . विकृति अकारान्त पु. पदार्थ का स्वरूप अकारान्त पु. वियोजन मार्ग मध्य मन मनुष्य ममत्व 21, 84 77 92 95 105 अकारान्त पु., नपुं. 37 107 57, 74, 82, 85, 87, 88, 96, 97 54 106 8, 9, 37 27 8, 27 18 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं 93 अकारान्त पु., नपुं. 68, 69 21 58 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. For Personal & Private Use Only (147) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममता ममत्ति माणुस मनुष्य मित्त FEE अकारान्त नपुं. . 98, 108 अकारान्त पु., नपुं. 21 अकारान्त पु., नपुं. 101 इकारान्त स्त्री. 42 अकारान्त पु. 56, 57, 88, 91, 96,102,103,104 अकारान्त पुं., नपुं. 96 .. अकारान्त पुं., नपुं. 95 . अकारान्त पुः, नपुं. 40 अकारान्त पु. 87, 88, 95, 96, 103 अकारान्त पु., न. 82 अकारान्त पु.; नपुं. 5 अकारान्त नपुं. अकारान्त पुं. 74 अकारान्त नपुं. 72 अकारान्त पुं. 36, 37, 44, 53, रूप लक्खण लक्षण लिंग लक्षण लुक्ख रूक्षता लुक्खत्त लोग रूक्षता लोक वट्टणा वण्ण वर्ण परिणमन आकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. व्यवहार अकारान्त पु. अरिहंत(तीर्थंकर) अकारान्त पु. वायुकाय उकारान्त पु. 40 97 ववहार वसह वाउ 75 (148) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी वित्थार विध वियप्प विलअ विलय विसय विनाश 24 वीर 14 वचन ईकारान्त स्त्री. 68, 69 विस्तार अकारान्त पु. 15 प्रकार अकारान्त पु. विचार अकारान्त पु. अकारान्त पुं. नाश अकारान्त पुं. इन्द्रिय-विषय अकारान्त पुं. 58, 66, 83 क्षेत्र अकारान्त पुं. विषय अकारान्त पुं. 104 भगवान महावीर अकारान्त पु. व्यय अकारान्त पु. गमन अकारान्त पु. 78 आकारान्त स्त्री. संक्षेप अकारान्त पु. संयोजन अकारान्त पु. राशि अकारान्त पु. शरीर आकार ___ अकारान्त नपुं. 60, 61, 80 संयोग अकारान्त पुं. 83 उत्पत्ति अकारान्त पुं. 7, 8, 10, 27, 51 . संसार अकारान्त पु. 28 सत्ता आकारान्त स्त्री. 13, 18 शत्रु उकारान्त पु. 101 शब्द अकारान्त पु. 40 संख्या 37 व्वय संकम संखा संखेव संघाद संचय संठाण संबध संभव संसार . सत्ता सत्तु सद्द 64 . प्रवचनसार (खण्ड-2) (149) For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भाव सभाव सम समण समय अस्तित्व अकारान्त पु. . 4, 51 स्वभाव अकारान्त पु. 62 ... स्वभाव अकारान्त पु. 25, 92, 108 अस्तित्ववान पदार्थ अकारान्त पु. 50 दृष्टि अकारान्त पु. 6. समय अकारान्त पु. _____46, 47, 50 समय-पर्याय अकारान्त पु. 47 .. श्रमण अकारान्त पु. _ 34, 105, 107 समय अकारान्त पुं. 10, 50, 51 समय-पर्याय अकारान्त पु. काल अकारान्त पु. 51 आगम अकारान्त पु. 89, 96 संक्षेप अकारान्त पु. - 87, 97 स्वभाव अकारान्त पुं. 2, 3, 4, 6, 7,17, 19, 25, 26, 28, 62, 91, 104 स्वरूप अकारान्त पुं. 7, 24 श्रावक अकारान्त पुं. 102 श्रमणता अकारान्त नपुं. श्रमण अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. 21, 65 अकारान्त पु. 25, 26, 61 समास सहाव सागार सामण्ण ५४ सासण उपदेश सिद्ध सिद्ध (150) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुह सुख सुख सोक्ख अकारान्त नपु. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. 101, 103 32, 103, 106 41 हेदुत्त कारणता 104 तत्तिदयं 1/1 मणो 2/1 सण्णया 3/1 सदिति 1/1 सद्दव्वं 1/1 अनियमित संज्ञा वह तीन का समूह मन नाम से अस्तित्व ही अस्तित्वयुक्त द्रव्य विद्यमान द्रव्य • कर्मवाच्य पकड़ा जाता है व कर्म 3/1 आदीयदे . 94 अनियमित कर्मवाच्य बज्झदि बाँधा जाता है व कर्म 3/1 अनि 56, 74, 81, 84 बज्झन्ति ..' बाँधे जाते हैं व कर्म 3/2 अनि 73, 86 मुच्चदि छुटकारा पाता है व कर्म 3/1 अनि 87 रंजदि रंगा जाता है व कर्म 3/1 अनि 59 विमुच्चदे छोड़ दिया जाता है व कर्म 3/1 अनि 94 प्रवचनसार (खण्ड-2) (151) . For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया अस चिट्ठ जा णस्स परिणम पाडुब्भव भव मुह मुज्झ रज्ज वट्ट वय विज्ज संजाय सक्क सिलिस (152) अर्थ होना क्रिया - कोश अकर्मक ठहरना उत्पन्न होना नष्ट होना परिणमन करना उत्पन्न होना होना मूर्च्छित होना मोह करना राग करना अनुरक्त होना होना नष्ट होना होना विद्यमान होना रहना उत्पन्न होना समर्थ होना बँधना / चिपकना गा.सं. 64 86 27, 37, 75 2 = 20 27 31 11 62 83 83 84 36,46 11 9 40 50 78 48 29 For Personal & Private Use Only प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हव होना 9, 13, 20, 21, 22,23, 35, 38, 45, 50, 63, 88, 92, 99, 104 57 30, 54, 98, 99, 103 घटित होना होना रहना होना 98 होज्ज 67, 103 अनियमित क्रिया अत्थु 107 होना होना संति 9, 49, 51, 52, 99, 101 प्रवचनसार (खण्ड-2) (153) For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश . सकर्मक क्रिया गा.सं. 59 अणुचर अणुभव 14 अणुहव इच्छ उवभुंज कर . कीर अर्थ पीछा करना प्राप्त करना प्राप्त होना प्राप्त करना मानना भोगना रचना करना 56 93 91 कुण बनाना 25 57 खव 102 93 करना नाश करना प्राप्त होना ग्रहण करना छोड़ना प्राप्त/उत्पन्न करना । नष्ट होना जानना 20, 58, 98 64 जाण 86 52, 53, 62, 65, 80, 82, 84, 87, 91 55 59, 102, 105, 106 जीव जीना झा ध्यान करना चिंतन करना धारण करना धर (154) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजह पदुस्स परिणम छोड़ना द्वेष करना प्राप्त करना अपनाना परिणमन करना छोड़ना प्रवेश करना देखना बाँधना छोड़ना परिवज्ज पविस पेच्छ बंध 108 86, 95 65, 82,84 87 93 लभ करना 19 लह 21, 29, 34, 103 प्राप्त करना कहना प्राप्त करना . me अनियमित क्रिया जाणीहि 2/1 जानो 82 झाए 1/1 ध्यान करना मण्णे 1/1 मानना 100 67 100 प्रवचनसार (खण्ड-2) (155) For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त-कोश . संबंधक कृदन्त कृदन्त कृदन्त शब्द अर्थ गा.सं. अभिभूय आच्छादित करके संकृ अनि आसेज्ज अवलम्बन करके संकृ अनि खविय-खवीय नष्ट करके चत्ता छोड़कर संकृ अनि जाणित्ता जानकर णिरुंभित्ता रोककर भविय-भवीय होकर 25 .91 103 98 102, 108 104 20,59. हेत्वर्थक कृदन्त जानने के लिए हेकृ . देने के लिए हेकृ अंतगद 105 अणिट्टि अतीद अपरिच्चत्त अभिमद भूतकालिक कृदन्त अंत पा लिया भूकृ अनि गया न कहा हुआ भूकृ अनि परे भूक अनि न छोड़ा हुआ भूकृ अनि माना गया भूकृ अनि 49 3 31 (156) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगद आदद आदिट्ठ इअ उप्पण्ण जुत्त उवट्ठिद कय खविद गद जाद जीविद जुत्त जुद ठिद णिचिद णिच्छिद णिट्टिद आया हुआ व्याप्त कहा गया प्राप्त उत्पन्न हुआ उत्पन्न संलग्न स्थित किया गया नष्ट कर दिया गया गया हुआ परिवर्तित हुआ उत्पन्न उत्पन्न हुआ हुआ जीया सहित संलग्न युक्त स्थित भरा हुआ निश्चय किया प्रवचनसार (खण्ड-2 ) भूक अनि भूकृ अनि भूकृ अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूकृ अनि भूक अनि भूकृ. अनि भूक भूकृ अनि भूकृ अनि भूकृ भूकृ भूकृ भूकृ भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक हुआ पूर्ण किया हुआ भूक अनि For Personal & Private Use Only 84 44 23 79 11 47 67 108 70 104 888888 89 78 46 61, 94 107 55 74 66 88,95 2 76 34 53 (157) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . णिहिट्ठ णिबद्ध शनि णिविट्ठ . णिव्वत्त कहा गया भूकृ अनि . 2, 16, 97 वर्णित 69 . . . युक्त भूकृ अनि 19, 36, 56 निष्पन्न नियंत्रित/ ___भूकृ अनि 48 रोका हुआ उत्पन्न भूक अनि । 24 रचा गया . 26 निष्पन्न 55 नष्ट किया गया भूकृ अनि 103, 105 ग्रहण किया भूक अनि नष्ट हुआ भूकृ अनि ___ कहा गया भूकृ अनि 5 उपलब्ध भूकृ अनि 77, 83 णिहद पडिवण्ण 98 पण? 11. . पण्णत्त पप्प . अर्जित परिणमिद परिणमन कराया भूक अनि गया परूविद भूक अनि 96 कहा गया बँधा हुआ कहा गया भूकृ अनि भणिद 56 1, 31, 32, 42, 45, 48, 63, 72, 85, 90, 97 12, 89 भणिय कहा गया (158) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 30 . 1 87 67, 82, 87 रत्त लिया हुआ भूकृ हुआ माना गया भूकृ अनि मोहित भूकृ अनि राग-युक्त भूकृ अनि रहित भूकृ अनि प्राप्त किया गया भूक अनि भूक अनि ज्ञात भूकृ अनि भूकृ अनि युक्त भूकृ अनि रहिद 26 लद्ध विजुत्त रहित 106 विण्णाद विरत्त विरक्त 104 38 विसिट्ठ संजुत्त सहित युक्त सहित संबद्ध भूकृ अनि युक्त. 17 संभूद उत्पन्न हुआ भूकृ अनि सदवट्ठिद अस्तित्व में भूकृ अनि ठहरा हुआं (सत्ता) अस्तित्व भूक अनि में अवस्थित सदविसिट्ठ. अस्तित्व भूकृ अनि लक्षणयुक्त समक्खाद कहा हुआ समवट्ठिद अवस्थित भूकृ अनि प्रवचनसार (खण्ड-2) 12, 17 ___6, 62 28, 50, 104 (159) For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समारद्ध समुद सिलिट्ठ गेज्झ य मुणेदव्व कुव्वं परिणममाण भवं संसरमाण (160) प्रारम्भ किया गया उचित प्रकार प्रयत्नशील हुआ संयुक्त अहोज्जमाण न होता हुआ समझा जाना चाहिये जानने योग्य समझा जाना चाहिये भूक अनि विधि कृदन्त ग्रहण करने योग्य विधिक अनि विधिक अनि भूक हुआ अनि भूक अनि वर्तमान कृदन्त वकृ ग्रहण करता हुआ वकृ परिणमण करता वकृ विधिकृ अनि होता हुआ परिभ्रमण करता वकृ हुआ वकृ अनि For Personal & Private Use Only 32 107 96 39 38, 42 105 2, 33, 39 222 21 92 26 20 28 प्रवचनसार (खण्ड-2) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण-कोश शब्द अओग्ग गा.सं. 76 अंतर अर्थ अयोग्य अन्य अक्षय इन्द्रिय ज्ञान से परे गंध-रहित 103 106 80 100 दृढ़ अक्खय अक्खातीद अगंध अचल अचेदण अजीव अज्जीव अड्ड 35 35, 38 35 106 अणंत 49 106 चेतना-रहित जीव से वियुक्त अजीव सहित समृद्ध अनन्त इन्द्रिय विषय से रहित । अभिन्न आलंबन से रहित अनुमोदक अनेक परस्पर परस्पर अतीन्द्रिय 21 100 अणक्ख अणण्ण अणालंब अणुमंतु अणेगअण्णमण्ण . अण्णोण्ण अदिदिय 60 81 85 100 प्रवचनसार (खण्ड-2) (161) For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA अमूर्त अरूव अ-पदेस प्रदेश-रहित 45,71 अ-प्पदेस प्रदेश-रहित अफल फलरहित 24 अमुत्त अरस रस-रहित रूप-रहित अलिंगग्गहण तर्क रहित अवत्तव्व अवक्तव्य अव्वत्त अप्रकट असंख असंख्य असंदेह संदेह-रहित असद्द शब्द-रहित 71,80 असद्धव ध्रुव (द्रव्य) अस्तित्व रहित 13 अशुभ 63, 64, 66, 67, 88, 89, 105 असुह आदित्त आहारय इदर उग्ग उवओगप्प वगैरहपन आहारक भिन्न आक्रामक रूखवाला उपयोगास्वरूपवाला/ चैतन्यस्वरूपवाला उपयोगस्वरूप उपयोगमय 101 उवओगप्पग उवओगमअ (162) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगमय अकेला उवजोगमअ एक्क एवंविह ओगाढ ऐसा गाढ़ा ओरालि कत्तु गहरा औदारिक कर्ता करनेवाला करनेवाला 30, 70, 94 34, 68, 92 कत्ति 68 ग्रस्त कसायिद कारयिदु गुणप्पग गुणव गुणिद: करानेवाला गुणात्मक गुणयुक्त अंशवाला प्रगाढ़ घातिया अनेक प्रकार का घण घादि चित्त 105 4, 40 108 जाणग ज्ञायक जीवप्पग जीव से संबंधित चेतनजीव से निर्मित जीवमय आत्मा से युक्त जोग . योग्य झादु . ध्यानकरनेवाला ध्यानलगानेवाला प्रवचनसार (खण्ड-2) 104 (163) For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणप्पग ज्ञानात्मक णाणप्पाण ज्ञानस्वरूप णिच्च 53 73 ... णिच्छिद णिद्ध णिप्फल णिरद तच्चण्हु दसणभूद दव्वम दव्वमय दव्वट्टि दव्वप्पग शाश्वत निश्चित स्निग्ध फलरहित तल्लीन जाननेवाला दर्शनमय द्रव्यस्वरूप द्रव्यसंबधी द्रव्यार्थिक द्रव्य से संबंधित द्रव्यात्मक द्रव्य से निर्मित व्यर्थ धुव 100, 101 शाश्वत ध्रौव्य धोव्व पज्जयट्ठि पदेसमेत्त 46, 52, 71 पद्धंसी प्रदेश-मात्र नाशवान मुख्यरूप से अन्तर्हित 47 पधाण 58 (164) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर इतर 1, 2, 6 अन्य आगे लगा हुआ 91, 99 102, 106 परम परम परिहीण पविभत्त पाओग्ग पाव परम अंश-रहित भिन्न योग्य पापकर्म पाप पुण्ण पुव्व प्पमुह पुण्य पहले सहित वगैरह रहित प्पहीण बहुग बादर बहुत 75, 76 स्थूल घटित भावि मय मइअ. मज्झत्थ . मलिमस मध्यस्थ मलिन 29, 58 प्रवचनसार (खण्ड-2) (165) For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्थ 100. . लुक्ख वट्टण्ण वदिवदद महापदार्थ 38, 39, 81 रूक्ष 71,73 रहनेवाला मंदगति से गमन करनेवाला 46 मंदगति से चलनेवाला जीतनेवाला प्रकार . विजय विध विविध विविह विसम विसुद्ध विहीण अनेक प्रकार का अनेक विषम सद्गुणी रहित वेउव्विअ स-अणुकंप वैक्रियिक करुणा-सहित कर्म-सहित स-कम्म - 26 सग स्व 2,75 92, 94 10, 51 सण्णिद स-पज्जाय स-पदेस स्व-संबंधी नामक पर्याययुक्त प्रदेश-सहित अपने प्रदेशों-सहित सम 43, 86, 96 सम समान (166) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समक्ख संज्ञावाला/नामक समग्ग समयिग समवेद समुन्भव सवियप्प सव्वगय स-संठाण सिद्ध समस्त दृष्टिवाला अभेद्यरूप से संयुक्त उत्पन्न होनेवाला भेद-सहित सब में स्थित आकार-सहित सिद्ध, निर्मित सिद्ध सुण्ण 34, 100 63, 64, 65, 67, 88, 89, 95 40, 75, 76 44, 45 सूक्ष्म शेष : अनियमित विशेषण वि अनि 5 उवदिसदा 3/1 उपदेशक तव्विवरीदो 1/1उसके विपरीत तस्सम 1/1 उसके समान सच्च 1/1 और विद्यमान सदसब्भाव सत् असत् भाव . वि अनि _ वि अनि 47 15 प्रवचनसार (खण्ड-2) (167) - For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यावाची विशेषण एक . एक्क Fun inte 50 10, 49 5, 14, 51, 72 71, 74,75 49 .. 74 . 55, 74 . EFF चदुक्क. पंच अनियमित संख्यावाची विशेषण दुराधिग दो से अधिक 73 (168) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम-कोश सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग गा.सं. अम्ह. मैं अण्ण कोई पु., नपुं., स्त्री. 67, 68, 70, 91, 98, 99, 100 पु., नपुं. 13, 20, 23, 34, 56, 62, 67, 90 अन्य भिन्न दूसरे इम यह यह यह कौन · जो पु., नपुं. पु., नपुं. पु., नपुं. पु., नपुं. . 17, 91, 98 _16, 24, 51, 87, 97 23, 105 2, 3, 6, 7, 15, 16, 17, 27, 32, 36, 38, 47, 50, 52, 53, 55, 59, 62, 65, 66, 71, 83, 84, 91, 98, 99, 102, 103, 104 __ 1, 2, 3, 6, 7, 13, 15, 16, 17, 22, 26, 27, 29, 32, 36, 38, 40, 45,46, त वह पु., नपुं.. प्रवचनसार (खण्ड-2) (169) For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47, 48, 50, 52, 53, 54, 55, 57, 59, 60, 62,. 63, 64, 65, 66, 68, 70, 77, 78, 82, 83, 84, 86,90, 94, 95, 96, 98,99,102, 103, 104, 107 - 30, 31 4, 36 9, 22, 48, 51, 79, 92, 93 105, 106 ता सव्व सव्व वह स्त्री. सर्व पु., नपुं. सब समस्त अनियमित सर्वनाम 70 मया 3/1 तदुभय 1/1 मेरे द्वारा वह दोनों (170) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-कोश अव्यय अर्थ गा.सं. नहीं अण अणेगविधं __32 अण्णहा 61 97 अनेक प्रकार से 'द्वितीयार्थक' अव्यय विभाव रूप में अन्य प्रकार वस्तुतः अस्ति अब इसी भाँति 16 अत्थादो अत्थि 23 अध 25, 90 101 भी 93 अवि आगमदो . आगमपूर्वक 6 इति • इस प्रकार 2, 3, 17, 23, 49 12, 15, 27, 32, 34, 84, 91, 96, 98 16, 18, 42 24 28, 43, 69,89 निश्चय ही क्योंकि ... पादपूरक इसलिए अतः इस संसार में इदाणिं प्रवचनसार (खण्ड-2) (171) For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इदि 14, इस प्रकार इस लोक में ऊपर 5, 18 72 12, 68, 84 15 21, 100, 102, 107 6. इस प्रकार अतः 91 कभी .. 94 कदाई. कधं कम्म 14, 21 कैसे कर्म से 'द्वितीयार्थक' अव्यय 13, 20 क्या - 20 18, 24, 27, 28 1, 5, 15, 17, 26 खलु कोई निश्चय ही निस्सन्देह निश्चय ही अत्यन्त गुण से गाढ गुणदो (172) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3, 33, 34, 38, 48, 68, + 13, 24, 34, 50, 57, 64, 73 45 जध जधा 8 जाव 58, 72 जैसे जबतक विधि अनुसार नहीं 86 जहाजोगं . ण . 6, 8, 13, 14, 16, 20, 21, 26, 30, 52, 58, 59, 62, 64, 67, 70, 77, 89, 92, 98, 99, 101 27, 68, 70, 93, 99 'न 24 ण णत्थि णत्थि सदा नहीं है । नास्ति .. नमस्कार नहीं 8, 18, 24, 28, 43 23 107 णमो . णवि . 91 णाणा अनेक 27 णिच्छयदो निश्चयपूर्वक प्रवचनसार (खण्ड-2) (173) For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णियदं आवश्यकरूप से न ही णेव नहीं 11, 27, 68, 93. 16, 34 47, 62 तं पि तच्चदो इसलिए तो भी यथार्थरूप से उससे उसके बाद इस तरह तध वैसे तधा पादपूरक इसी प्रकार इसलिये तम्हा 9, 10, 12, 13, 18, 29, 33, 70, 108 तम्हा दु तह इस कारण इस कारण ही इसी प्रकार और उसी प्रकार तीन प्रकार का तीन प्रकार से 82, 108 तहेव तिधा तिहा (174) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दु 23, 36 30 निश्चय ही और 41,98 46 92 पच्चक्खं 105 किन्तु प्रत्यक्ष रूप से 'द्वितीयार्थक' अव्यय अवलम्बन करके AA पडुच्च पुण तो भी 18, 30 28, 31, 44 31, 35 1, 13, 78, 83 पुणो 20 फिर किन्तु और क्योंकि 23, 41, 43, 69 चूंकि पुणो पुणो पुव्वं पोग्गलं . बार-बार । विगत काल में पुद्गल. 'द्वितीयार्थक' अव्यय और 8, 11, 12, 15, 22, 23, 40, 43, 49, 54,69,71,76, 79, 82, 90, 107 (175) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 . . राग से 'द्वितीयार्थक' अव्यय तथा 18. पादपूर्ति 21 और अथवा और 32, 37, 88 49, 73 8, 31, 75, 101 . . 13, 20, 25, 32, 63, 64, 70, 71, 73, 83, 101 अथवा पादपूरक 18 या तथा 21, 23, 74 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति 71, 73 भी . 8, 23, 63, 90 और - 16 50, 78 8, 18 19 विणा बिना निस्संदेह सदा सदैव समंत (समंता) पूरी तरह से समदो समान रूप से स्वयं सव्वदो सब ओर से 106 सयं 12, 13, 18, 30, 71 (176) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से युक्त वाक्यालंकार किन्तु/परन्तु निश्चय ही 1,77 4, 6, 14, 24, 27, 49, 55, 57, 64, 69, 70, 83, 86, 92 7, 16, 42, 51, 60, 73, 9, 26 प्रवचनसार (खण्ड-2) (177) For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 . छंद छंद के दो भेद माने गए है1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- ह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती लघु (ल) (।) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्णों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2)जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- ‘वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (s) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) (178) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्गों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है यगण - । मगण SSS तगण - ऽऽ। 5। जगण ।5। भगण ऽ।ऽ नगण सगण - ।। प्रवचनसार में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं। लक्षण- . . गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (179) For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण ऽऽ।ऽ । ऽऽ दव्वं सहावसिद्धं ऽऽ ।। 5 ।। ऽ सिद्धं तध आगमदो ।।। । ऽ । ऽ । ऽ ऽऽ. सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा। ऽ।। ऽ ऽ । ॥।। 5 णेच्छदि जो सो हि परसमओ।। 11515 155 SS SSI si illiss सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो। SSIS 155 115 11 51555. अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो। 5 511155, S55 SISI SSS उप्पादठिदिभंगा विज्जते पज्जएसु पज्जाया। SSI SI 115 55 S Sill ss दव्वं हि संति णियदं तम्हा. दव्वं हवदि सव्वं।। ऽ ऽ।॥ । ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ।ऽ ।।। 55 पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो। ऽऽ। ऽ । ऽ ऽ ऽ। ।ऽऽ । ऽ ऽ ऽ दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणटुं ण उप्पण्णं।। (180) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश प्रवचनसार प्रवचनसार 3. प्रवचनसार : प्रस्तावना व अंग्रेजी अनुवादडॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हिन्दी अनुवादक-हेमराज पाण्डेय (श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, चतुर्थ आवृत्ति, 1984) : हिन्दी अनुवादक-पण्डित राजकिशोर जैन (श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्द परमागम ट्रस्ट, इन्दौर एवं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर) : हिन्दी अनुवादकश्री पण्डित परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ (श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), 1964) : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी,1986 ) : डॉ. नरेश कुमार (डी. के प्रिंटवर्ल्ड (प्रा.) लि., नई दिल्ली, 1999) : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) 4. पाइय-सद्द-महण्णवो 5. अपभ्रंश-हिन्दी कोश 6. संस्कृत-हिन्दी कोश प्रवचनसार (खण्ड-2) (181) For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल व्याकरण हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) ..9. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी .... (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 10. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) 11. प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1 (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 1999) 12. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) 13. प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) 14. प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) जयपुर, 2008) (182) प्रवचनसार (खण्ड-2) For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only