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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की तात्विक धारणा के अनुरूप द्रव्य परिणमन स्वभाववाला होता है। इसलिए दो प्रकार की उत्पत्ति से युक्त रहता है। (1) सत्रूप उत्पत्ति (2) असत्रूप उत्पत्ति। ये दोनों प्रकार की उत्पत्तियाँ द्रव्य में अविरोधरूप से उपस्थित रहती हैं। उदाहरणार्थ, परिणमन स्वभाव के कारण सोनारूपी द्रव्य जब कंकण को उत्पन्न करता है तो द्रव्यदृष्टि से पूर्व में विद्यमान सोना बना रहता हे और पर्यायदृष्टि से पूर्व में अविद्यमान कंकण उत्पन्न होता है। द्रव्य में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-सहित परिणाम है वह द्रव्य का ही स्वभाव है। - आचार्य कुन्दकुन्द एक दूसरे प्रकार से भी द्रव्य का लक्षण कहते हैं। अस्तित्व स्वभावमय द्रव्य गुण-पर्याय युक्त होता है। वे कहते हैं: द्रव्य अस्तित्व है, गुण अस्तित्व है और पर्याय भी अस्तित्व है। किन्तु द्रव्य-गुण-पर्याय का अस्तित्व से तादात्म्य नहीं है। उनका अस्तित्व से ‘अन्यत्व' नामक भेद है। दूसरे शब्दों में जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह तादात्म्य का अभाव है किन्तु यह निश्चय ही अभाव नहीं कहा गया है। इस लोक में बिना द्रव्य के न कोई गुण है और न कोई पर्याय है। द्रव्य के लक्षणों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को एकसाथ कहने पर इस प्रकार कहा गया हैः सत् स्वभाव सहित जो पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता संयुक्त है तथा गुण-पर्याय-युक्त है वह ही द्रव्य कहा गया है। उदाहरणार्थ, सत्रूप सोनेरूपी द्रव्य में ही पीलापन आदि गुण और कुंडलादि पर्याय होती है और जब कंकणादि का उत्पाद किया जाता है तो कुंडलादि पर्याय का व्यय होता है किन्तु सोनारूपी द्रव्य का अस्तित्व यथावत् रहता है। अतः द्रव्य सत् स्वभाव को लिये हुए गुण-पर्याय सहित तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त एक (2) प्रवचनसार (खण्ड-2) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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