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64. उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तथ पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।।
उaओगो
जइ
हि
सुहो
पुणं
जीवस्स
संचयं
जादि
असुहो
वा
तध
पावं
सिमभावे
ण
चयमत्थि
( उवओग) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
(सुह) 1/1 वि
(पुण्ण) 2 / 1 वि
(जीव ) 6/1
( संचय) 2/1
(जा) व 3 / 1 सक
( असुह) 1 / 1 वि
अव्यय
अव्यय
(पाव) 2/1 वि [(तेसिं) + (अभावे)] तेसिं (त) 6/2 सवि अभावे (अभाव) 7/1
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अव्यय
[(चयं) + (अत्थि)]
चयं (चय) 1/1
अत्थि (अस) व 3/1 अक
उपयोग
यदि
निश्चय ही
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शुभ
पुण्य
जीव के
राशि को
प्राप्त / उत्पन्न करता है
अशुभ
अथवा
पादपूरक
पाप को
उनके
अभाव में
नहीं
अन्वय- जीवस्स जदि सुहो उवओगो हि पुण्णं संचयं जादि वा असुहो पावं तथ तेसिमभावे चयं ण अत्थि।
अर्थ- जीव के यदि शुभ उपयोग (होता है) (तो) (वह) निश्चय ही पुण्य राशि को प्राप्त / उत्पन्न करता है अथवा (यदि) अशुभ (उपयोग ) (होता है) (तो) पाप (समूह) को ( प्राप्त / उत्पन्न करता है ) । उन (शुभ व अशुभ) के अभाव में (पुण्य-पाप) (कर्म का ) संग्रह नहीं होता है।
प्रवचनसार ( खण्ड - 2 )
संग्रह
होता है
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