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________________ 65. जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स।। जाणादि जिणिंदे . पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे जीवेसु साणुकंपो उवओगो (ज) 1/1 सवि (जाण) व 3/1 सक (जिणिंद) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक (सिद्ध) 2/2 अव्यय (अणगार) 2/2 (जीव) 7/2 (साणुकंप) 1/1 वि (उवओग) 1/1 (त) 1/1 सवि (सुह) 1/1 वि (त) 6/1 सवि जो जानता है अरहंतों को ...देखता है सिद्धों को उसी प्रकार मुनियों को जीवों में करुणा-युक्त उपयोग वह शुभ उसका तस्स अन्वय- जो जिणिंदे जाणादि सिद्धे पेच्छदि तहेव अणगारे जीवेसु साणुकंपो तस्स सो उवओगो सुहो। अर्थ- जो अरहंतों (के स्वरूप) को (ज्ञाताभाव से) जानता है, सिद्धों को (दृष्टाभाव से) देखता है उसी प्रकार मुनियों (आचार्य, उपाध्याय और साधुओं) को (भी) (जानता-देखता है), (जो) जीवों में करुणा-युक्त (है), उसका वह उपयोग (चेतनायुक्त भावात्मकता) शुभ (है) अर्थात् वह जीव शुभोपयोगी (है)। 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। (80) प्रवचनसार (खण्ड-2) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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