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________________ 101. देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तमित्तजणा । जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा || देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तु मित्तजणा जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा (देह) 1/2 अव्यय (दविण ) 1/2 अव्यय [(सुह) - (दुक्ख ) 1/2] [(वा) + (अध)] वा (अ) = और और अध (अ) = इसी भाँति इसी भाँति [ ( सत्तु ) - ( मित्त) - ( जण) 1 / 2] शत्रु-मित्र लोग (जीव ) 6/1 जीव के Jain Education International अव्यय (संति) व 3 / 2 अक अनि (धुव) 1/2 वि [(धुव) + (उवओग) + (अप्पगो)] [(धुव) - (उवओगप्पग) 1/1 fa] (अप्प ) 1/1 शरीर अथवा संपत्ति अथवा सुख-दुःख आत्मा अन्वय- देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा जीवस्स ण संति धुवोवओगप्पगो अप्पा धुवा । अर्थ- शरीर अथवा सम्पत्ति अथवा सुख - दुःख और इसी भाँति शत्रुमित्र लोग जीव के शाश्वत नहीं होते हैं। (केवल) उपयोगस्वरूपवाला आत्मा शाश्वत (है)। (116) For Personal & Private Use Only नहीं होते हैं शाश्वत शाश्वत, उपयोगस्वरूपवाला प्रवचनसार (खण्ड-2 2) www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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