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. 14. पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स।
अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं।।
पविभत्तपदेसत्तं
पुधत्तमिदि
सासणं
उपदेश
अव्यय
वीरस्स अण्णत्तमतब्भावो
[(पविभत्त) वि-(पदेसत्त) भिन्न 1/1]
प्रदेशता [(पुधत्तं)+ (इदि)] पुधत्तं (पुधत्त) 1/1 पृथकता इदि (अ) = ऐसा · · ऐसा (सासण) 1/1
निश्चय ही (वीर) 6/1
भगवान महावीर का [(अण्णत्तं)+ (अतब्भावो)] अण्णत्तं (अण्णत्त) 1/1 अन्यत्व अतब्भावो (अतब्भाव) 1/1 तादात्म्य का अभाव अव्यय
नहीं (तब्भव) 2/1
तादात्म्य को (हो) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(कधं)+ (एग)] कधं (अ) = कैसे कैसे एगं (एग) 1/1 वि एकरूप/समरूप
तब्भवं
होदि
कधमेगं
अन्वय- वीरस्स हि इदि सासणं पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं अतब्भावो अण्णत्तं तब्भवं ण होदि कधमेगं।
अर्थ- भगवान महावीर का निश्चय ही ऐसा उपदेश (है): (द्रव्यों में) भिन्न प्रदेशता पृथकता (कही गई है)। (प्रदेश भेद के बिना भी द्रव्य और गुण में) तादात्म्य का अभाव अन्यत्व (है)। (जब) (द्रव्य और गुण) तादात्म्य को प्राप्त नहीं करता है (तो) (द्रव्य और गुण) एकरूप/समरूप कैसे (होंगे)?
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प्रवचनसार (खण्ड-2)
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