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________________ 106. सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ।। सव्वाबाधविजुत्तो [ ( सव्व ) ' सवि - (बाध) (वित्त) भूकृ 1 / 1 अनि ] समंतसव्वक्खसोक्ख [(समंत) 2 अ- (सव्व) सवि णाणड्डो भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं 1. 2. (अक्ख) - (सोक्ख) ( णाण) - ( अड्ड) 1 / 1 वि] (भूद) भूकृ 1 / 1 अनि ( अक्खातीद) 1 / 1 वि प्रवचनसार (खण्ड-2) (झा) व 3 / 1 सक ( अणक्ख) 1 / 1 वि अन्वय-सव्वाबाधविजुत्तो अक्खातीदो अणक्खो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो भूदो परं सोक्खं झादि । अर्थ- समस्त बाधाओं से रहित, इन्द्रियज्ञान से परे, इन्द्रिय-विषयों से रहित, पूरी तरह से समस्त इन्द्रियों के सुख और ज्ञान से समृद्ध हुआ ( श्रमण ) परम सुख का ध्यान करता है। Jain Education International (पर) 2 / 1 वि (सोक्ख) 2 / 1 समस्त बाधाओं से रहित पूरी तरह से समस्त इन्द्रियों के सुख और ज्ञान से समृद्ध हुआ इन्द्रियज्ञान से परे ध्यान करता है इन्द्रिय-विषयों से समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है। (प्राकृत-व्याकरण, पृ. 21 ) (हेम - 1 / 4 ) यहाँ छन्द की पूर्ति हेतु समंता - समंत किया गया है। रहित परम सुखका For Personal & Private Use Only (121) www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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