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जीवो
जीव
57. पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं।
जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं।। पाणाबाधं [(पाण)+(आबाधं)]
[(पाण)-(आबाध) 2/1] प्राणों की क्षति
(जीव) 1/1 मोहपदेसेहिं [(मोह)-(पदेस)' 3/2] मोह एवं द्वेष के कारण कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है जीवाणं (जीव) 6/2
जीवों के जदि
अव्यय (त) 1/1 सवि
वह हवदि (हव) व 3/1 अक घटित होता है अव्यय
निश्चय ही (बंध) 1/1 णाणावरणादिकम्मेहिं [(णाणावरण)+(आदि)+ -
(कम्मेहिं)] [(णाणावरण)-(आदि)- ज्ञानावरण तथा अन्य (कम्म) 3/2] कर्मों से
यदि
बंधो
बंध
अन्वय- जदि सो जीवो मोहपदेसेहिं जीवाणं पाणाबाधं कुणदि हि णाणावरणादिकम्मेहिं बंधो हवदि।
अर्थ- यदि वह जीव मोह (आसक्ति) एवं द्वेष के कारण जीवों के प्राणों की क्षति करता है (तो) निश्चय ही (इस जीव के) ज्ञानावरण तथा अन्य कर्मों से बंध घटित होता है।
1.
कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 36)
(शा
(72)
प्रवचनसार (खण्ड-2)
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