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________________ 62. तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खाद। जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि।। अव्यय इसलिए सब्भावणिबद्धं [(सब्भाव)-(णिबद्ध) स्वभाव से निष्पन्न भूकृ 1/1 अनि] दव्वसहावं [(दव्व)-(सहाव) 2/1] द्रव्य के स्वभाव को तिहा अव्यय तीन प्रकार से समक्खादं (समक्खाद) भूकृ 1/1 अनि कहा हुआ जाणदि (जाण) व 3/1 सक जानता है (ज) 1/1 सवि सवियप्पं (स-वियप्प) 2/1 वि भेद-सहित अव्यय नहीं मुहदि (मुह) व 3/1 अक मूर्छित होता है (त) 1/1 सवि अण्णदवियम्हि - [(अण्ण) सवि-(दबिय) 7/1] अन्य द्रव्य में वह अन्वय- तं जो तिहा समक्खादं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं सवियप्पं जाणदि सो अण्णदवियम्हि ण मुहदि। अर्थ- इसलिए जो तीन प्रकार (उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य) से कहे हुए स्वभाव से निष्पन्न (जीव) द्रव्य के स्वभाव को भेद (स्वभाव-विभाव) सहित जानता है, वह (आत्मज्ञानी) अन्य द्रव्य (विभाव द्रव्य) में मूर्च्छित नहीं होता है। प्रवचनसार (खण्ड-2) (77) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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