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अतः आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि पर्यायों से मोहित व्यक्ति अध्यात्मविहीन दृष्टिवाले होते हैं और जो आत्म-द्रव्य में रत होते हैं वे आध्यात्मिक दृष्टिवाले समझे जाने चाहिये।
. आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य के परिणमन स्वभाव की एक और अभिव्यक्ति को समझाते हुए कहते हैं कि परिणमन स्वभाव के कारण आत्मचेतना पदार्थ के विचाररूपी ज्ञान में, अनेक प्रकार के कर्म में और सुख-दुःखरूप कर्म के फल में रूपान्तरित होती है। इतना होते हुए भी जो परिणमन ज्ञान-कर्मकर्मफलरूप में घटित होता है वह आत्मा ही समझा जाना चाहिये और वे ही श्रमण शुद्धात्मा को प्राप्त करते हैं, जो कर्ता, करण (साधन), कर्म और कर्मफल को आत्मा ही समझ लेते हैं। द्रव्यों का स्वरूप
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य हैं। इन्हीं छह द्रव्यों से लोक निर्मित हैं। केवल आकाश द्रव्य का विस्तार अलोक' में भी है। बाकी द्रव्य- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल- अलोक में नहीं कहे गये हैं। कहा है- “आकाश द्रव्य लोक और अलोक में रहता है लोक धर्म और अधर्म से व्याप्त है। जीव और पुद्गल लोक में हैं। काल जीव और पुद्गल के परिवर्तन को अवलम्बन करके जाना जाता है।"(44) ____ सभी द्रव्य प्रदेश-सहित होते हैं। प्रदेश-रहित द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है। प्रवचनसार के अनुसार, “जिस द्रव्य के अनेक प्रदेश नहीं है और एक प्रदेश मात्र भी जानने के लिए नहीं हैं, उस द्रव्य को तुम शून्य जानो (सुण्णं जाण तुमत्थं)।" प्रदेश की अवधारणा को समझते हुए प्रवचनसार का कहना है कि पुद्गल के एक परमाणु से रोका हुआ जो आकाश द्रव्य है, वह
प्रवचनसार (खण्ड-2)
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