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________________ 5. इह विविहलक्खणाणं' इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं । उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ।। लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं उवदिसा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं 1. प्रवचनसार ( खण्ड - 2 ) अव्यय [ ( विविह) वि - ( लक्खण) 6/2] [(लक्खणं) + (एगं)] लक्खणं ( लक्खण) 1 / 1 एगं (एग ) 1 / 1 वि (सदिति) 1/1 अनि ( सव्वगय) 1 / 1 वि ( उवदिसदा) 3 / 1 वि अनि अव्यय (धम्म) 1/1 ( जिणवरवसह ) 3 / 1 (पण्णत्त) भूकृ 1 / 1 अनि अन्वय- इह विविहलक्खणाणं एगं लक्खणं सव्वगयं सदिति उवदिसदा जिणवरवसहेण खलु धम्मं पण्णत्तं । अर्थ - इस लोक में अनेक लक्षणों में से (द्रव्य का) एक लक्षण सब (पदार्थों) में स्थित अस्तित्व ही ( है ) । उपदेशक जिनश्रेष्ठ अरिहंत (तीर्थंकर) द्वारा निश्चय ही (यह) स्वभाव कहा गया ( है ) । कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134) Jain Education International इस लोक में अनेक लक्षणों में से For Personal & Private Use Only लक्षण एक अस्तित्व ही सब में स्थित . उपदेशक निश्चय ही स्वभाव जिनश्रेष्ठ अरिहंत (तीर्थंकर) द्वारा कहा गया (19) www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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