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25. कम्मंणामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण।
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि।।
कम्म णामसमक्खं
कर्म नामसंज्ञावाला/नामक
सभावमध
स्वभाव को. अब आत्मा के
स्वभाव से
अप्पणो सहावेण अभिभूय णरं तिरियं
(कम्म) 1/1 (णामसमक्ख) 1/1 वि [(सभावं)+(अध)] सभावं (सभाव) 2/1 अध (अ) = अब (अप्प) 6/1 . (सहाव) 3/1 (अभिभूय) संकृ अनि (णर) 2/1 (तिरिय) 2/1 (णेरइय) 2/1
अव्यय (सुर) 2/1 (कुण) व 3/1 सक
आच्छादित करके . मनुष्य
तिर्यंच
णेरइयं
नारकी अथवा
.
कुणदि
बनाता है
अन्वय- अध णामसमक्खं कम्मं सहावेण अप्पणो सभावं अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि।
___ अर्थ- अब नामसंज्ञावाला/नामक कर्म (अपने) स्वभाव से आत्मा के (शुद्ध) स्वभाव को आच्छादित करके मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव (पर्याय) बनाता है।
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प्रवचनसार (खण्ड-2)
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