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________________ 83. उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो।। उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि पदुस्सेदि पप्पा विविधे विसये (उवओगमअ) 1/1 वि (जीव) 1/1 (मुज्झ) व 3/1 अक (रज्ज) व 3/1 अक अव्यय (पदुस्स) व 3/1 सक (पप्प) भूकृ 2/2 अनि . (विविध) 2/2 वि (विसय) 2/2 (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (त) 3/2 सवि (संबंध) 1/1 उपयोगमय जीव मोह करता है राग करता है अथवा .. . द्वेष करता है उपलब्ध अनेक प्रकार के इंद्रिय-विषयों में जो निश्चय ही फिर उनके साथ/कारण संयोग che "E संबंधो अन्वय- जो उवओगमओ जीवो विविधे पप्पा विसये मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि पुणो हि तेहिं संबंधो। अर्थ- जो उपयोगमय (अशुद्ध) जीव (है) (वह) अनेक प्रकार के उपलब्ध इंद्रिय-विषयों में मोह (आत्मविस्मृति) करता है, राग (आसक्ति) करता है अथवा द्वेष (शत्रुता) करता है, (तो) (उस जीव के) फिर निश्चय ही उन (मोह, राग, द्वेष) के साथ/कारण (कर्मबंध) (का) संयोग (होता है)। 2. पप्पा ( संकृ अनि) = इन्द्रिय विषयों को प्राप्त करके (यह अर्थ भी लिया जा सकता है) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (98) प्रवचनसार (खण्ड-2) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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