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'59. जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि।
कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति।।
जो
इंदियादिविजई
इन्द्रिय तथा इसी प्रकार
और का भी जीतनेवाला होकर
भवीय उवओगमप्पगं
झादि कम्मेहिं
(ज) 1/1 सवि [(इंदिय)+(आदिविजई)] [(इंदिय)-(आदि)(विजइ) 1/1 वि] (भव+इय) संकृ [(उवओगं)+(अप्पगं)] उवओगं (उवओग) 2/1 वि
अप्पगं (अप्पग) 2/1 . (झा) व 3/1 सक (कम्म) 3/2 (त) 1/1 सवि अव्यय (रंजदि) व कर्म 3/1 अनि अव्यय (त) 2/1 सवि (पाण) 1/2 (अणुचर) व 3/2 सक
ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्यान करता है कर्मों से वह
नहीं
रंजदि
रंगा जाता है
कैसे
पाणा
उसका प्राण पीछा करते हैं
अणुचरंति
अन्वय- जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि सो कम्मेहिं ण रंजदि तं पाणा किह अणुचरंति।
अर्थ- जो इन्द्रिय तथा इसी प्रकार और का भी जीतनेवाला होकर (शुद्ध) ज्ञानस्वरूप आत्मा का ध्यान करता है (तो) वह कर्मों से नहीं रंगा जाता (बाँधा जाता) है उस (आत्मा) का प्राण कैसे पीछा करेंगे? अर्थात् वह आत्मा दूसरा जन्म धारण नहीं करेगी।
1. 2.
यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'भविय' के स्थान पर 'भवीय' किया गया है। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है।
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प्रवचनसार (खण्ड-2)
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