________________
19. एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं।
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि।।
ऐसा स्वभाव के कारण
द्रव्य
एवंविहं (एवंविह) 1/1 वि सहावे
(सहाव) 7/1 दव्वं
(दव्व) 1/1 दव्वत्थपज्जयत्थेहिं [(दव्वत्थ)-(पज्जयत्थ)
3/2 वि] सदसब्भावणिबद्धं [(सदसब्भाव) वि अनि -
(णिबद्ध) भूक 2/1 अनि ] पादुब्भावं
(पादुब्भाव) 2/1
अव्यय लभदि (लभ) व 3/1 सक
द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के साथ सत्युक्त तथा असत्युक्त
सदा
उत्पत्ति को सदैव करता है
अन्वय- एवंविहं दव्वं सहावे सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि दव्वत्थपज्जयत्थेहिं।
अर्थ- ऐसा द्रव्य (परिणमन) स्वभाव के कारण सत्युक्त तथा असत्युक्त उत्पत्ति को सदैव करता है। (यह दोनों प्रकार की उत्पत्ति) द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के साथ (अविरोधरूप में) (रहती है)। (उदाहरणार्थ परिणमन स्वभाव के कारण सोना रूपी द्रव्य जब कंकण को उत्पन्न करता है तो द्रव्यदृष्टि से पूर्व में विद्यमान सोना बना रहता है और पर्यायदृष्टि से पूर्व में अविद्यमान कंकण उत्पन्न होता है)।
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) सम्पादक द्वारा अनूदित
नोटः
प्रवचनसार (खण्ड-2)
(33)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org