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________________ 3. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं। गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति।। अपरिच्चत्तसहावेणु- [(अपरिच्चत्तसहावेण)+ प्पादव्वयधुवत्त- (उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं)] संजुत्तं [(अपरिच्चत्त) भूक अनि- न छोड़े हुए /शाश्वत (सहाव) 3/1] अस्तित्व स्वभाव सहित [(उप्पाद)-(व्वय)-(धुवत्त)- उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यता (संजुत्त) भूकृ 1/1 अनि से संयुक्त गुणवं (गुणव) 1/1 वि गुणयुक्त अव्यय . और सपज्जायं (स-पज्जाय) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि दव्वं ति [(दव्वं)+ (इति)] दव्वं (दव्व) 1/1 द्रव्य इति (अ) = ही वुच्चंति (वुच्च ) 3/2 सक कहते हैं .. पर्याययुक्त . 4. ही अन्वय- अपरिच्चत्तसहावेण जं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं गुणवं च सपज्जायं तं दव्वं ति वुच्चंति। अर्थ- न छोड़े हुए/शाश्वत अस्तित्व स्वभाव सहित जो (पदार्थ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यता से संयुक्त (है) (तथा) गुणयुक्त और पर्याययुक्त (है) वह ही द्रव्य (है) (ऐसा) (जिन) कहते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-2) (17) . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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