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103. जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे।
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि।। . .
णिहदमोहगंठी
रागपदोसे खवीय
सामण्णे होज्ज समसुहदुक्खो
(ज) 1/1 सवि . जो [(णिहद) भूकृ अनि-(मोह)- नष्ट कर दी गयी (गंठि) 1/1] मोहरूपी गाँठ [(राग)-(पदोस) 2/2] राग-द्वेष .. . (खविय-खवीय) संकृ नष्ट करके छन्द की पूर्ति हेतु ‘खविय का खंबीय' किया गया है (सामण्ण) 7/1
श्रमण अवस्था में (होज्ज) व 3/1 अक होता है (समसुहदुक्ख) 1/1 वि समान सुखदुःखवाला (त) 1/1 सवि
वह (सोक्ख) 2/1
सुख को (अक्खय) 2/1 वि. अक्षय (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है
सोक्खं
अक्खयं
लहदि
अन्वय- णिहदमोहगंठी जो सामण्णे रागपदोसे खवीय समसुहदुक्खो होज्जं सो अक्खयं सोक्खं लहदि।
अर्थ- (जिस श्रावक या मुनि के द्वारा) मोहरूपी (आत्मविस्मृतिरूपी) गाँठ नष्ट कर दी गई है, जो श्रमण अवस्था में राग-द्वेष नष्ट करके समान सुखदुःखवाला होता है, वह अक्षय सुख को प्राप्त करता है।
1.
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु अनुस्वार का आगम हुआ है।
(118)
प्रवचनसार (खण्ड-2)
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