Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
२१
किन्तु, ऋग्वेद का यह यम, यथार्थतः नर है, वह वस्तुतः शिव है। इसने अपने जीवन में संयम के फूल खिलाये हैं और निग्रह में ही विग्रह को अवसान दिलाया है। वह, यमी के उत्तर में, कहता है-'यो यमी! उस प्रथम-दिवस को कौन जानता है ? किसने देखा है उसे ? उसे कौन बता सकेगा ? वरुण का व्रत महान् है। मित्र का घाम प्रभूत है। प्रो कुत्सित मार्ग पर चलने वाली यमी ! विपरीत कथन क्यों करती है ? प्रत्यक्षतः तो हम भाई-बहिन ही हैं। फिर, इस सम्बन्ध के बदलने की आवश्यकता भी तो नहीं है । क्योंकि, वरुण का यह आदेश है, मित्र का ऐसा व्रत है।
साहित्यिक रसात्मकता से परिपूर्ण, पुरुरवा और उर्वशी का संवाद भी, इसी मण्डल में मिलता है । सूक्त की शब्दावली दुरूह और कठिन अवश्य है, पर, उनसे व्यक्त होने वाले भाव, बेहद चुटीले हैं । पुरुरवा कहता है--'यो मेरी बेदर्द पत्नी ! ठहर, आ, कुछ बातें कर लें। हमने आज तक, खुलकर बातें तक नहीं की; हमारे मन को आज तक ठण्डक नहीं मिली। 2
। उर्वशी उत्तर देती है-'यो पुरुरवस् ! क्या करूंगी तेरी इन बातों का? (तेरे घर से तो) मैं ऐसे आ गई हैं, जैसे कि सबसे पहिली उषा । प्रो पुरुरवस् ! अब मैं, हवा की तरह (तेरी) पकड़ से बाहर हूँ।
प्रेम-पगे दो-चार क्षणों की भिक्षा मांगने वाले पुरुरवा की प्रार्थना का कैसा निर्मम तिरस्कार किया उर्वशी ने । फिर भी, दोनों की परस्पर बातें चलती रहीं। पुरुरवा, अनुनय पर अनुनय करता रहा, अपनी उर्वशी को याद दिलाता रहा तमाम पुरानी यादें, जिनके व्यामोह में उलझ कर, वह उसके घर वापिस चली चले । किन्तु, सब निरर्थक, सब निस्सार ।......"आखिर, तार-तार होकर टूटने लगा पुरुरवा का दिल । वह, सहन नहीं कर पाता है अपनी अन्तः पीड़ा को, और चिल्ला उठता है उन्मत्त जैसा--'यो उर्वशी ! तेरा यह प्रणयी, आज कहीं दूर चला जायेगा;
१. को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क हैं ददर्श क इह प्र वोचत् ।
वृहन् मित्रस्य वरुणस्य धाम कटु ब्रव प्राह नो वीच्या नृन् ।
-वही १०/१०/७
२. हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृरणवावहै नु ।
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन् परतरे च नाहन् ।
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-वही १०/६५/१
३. किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
पुरुरवा पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि ।।
-वही १०/१५/२
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