Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
वैदिक साहित्य मूलतः धर्मप्रधान है। देवताओं को लक्ष्य करके यज्ञ आदि का विधान करके, उसमें जो कमनीय स्तुतियां सङ्कलित की गई हैं, वे, वैदिक साहित्य की एक विलक्षण विशेषता बन चुकी हैं। इन स्तुतियों के माध्यम से, तमाम ऐसे कथानक वैदिक साहित्य में भरे पड़े मिलते हैं, जिनका साहित्यिक-स्वरूप, उनके धार्मिक महत्त्व से कम मूल्यवान् नहीं ठहरता।
ऋग्वेद, देवों को लक्ष्य करके गाये गये स्तोत्रों का बृहत्काय संकलन है । इस में, तमाम ऋषियों द्वारा, अपनी मनचाही मुराद पाने के लिये, भिन्न-भिन्न देवताओं से की गई प्रार्थनाएं हैं । तत्त्वतस्तु, जीवन में परमसत्य की प्रतिष्ठा कर लेना, जीवन का सबसे महान् लक्ष्य होता है । ऋग्वेद में, परमसत्य का देवता वरुण को माना गया है । किन्तु, वैदिक आर्य, इस देश में, विजय पाने की लालसा से आये थे । इस विजय का देवता, उन्होंने भ्राजमान इन्द्र को बनाया। शायद यही कारण है, जिस की वजह से, जीवन की यथार्थता का प्रतिनिधि देवता 'वरुण', विजय के प्रतिनिधि देव इन्द्र की स्तुतियों की बहुलता में, पीछे पड़ा रह गया । इसीलिये, वरुण का स्थान, कुछ काल पश्चात् इन्द्र को मिल गया।
इस विविधतामयी वर्णना में, कुछ ऐसे कमनीय भाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जिनसे यह सहज अनुमान हो जाता है कि ऋग्वेद जैसा आदिम ग्रन्थ भी काव्य कला के उपकरणों से परिपूर्ण है। अलंकारों, ध्वनियों और व्यञ्जनाओं से अनुप्रारिणत गीतियों में भरी रूपकता, हमें यह अहसास तक नहीं होने देती कि हम किसी देब-स्तोत्र का श्रद्धा-वाचन कर रहे हैं, अथवा, किसी शृङ्गार काव्य की सरसपदावली का रसास्वादन कर रहे हैं। यम-यमी के पारस्परिक संवाद की दर्शनीय रसीली छटा, एक ऐसी ही स्थिति मानी जा सकती है ।
यम और यमी का परस्पर संवाद चलते-चलते ही, बीच में, यमी कामाग्नि संतप्त हो उठती है । तब, वह यम से कहती है—'हम दोनों को सृष्टा ने, गर्भ में ही पति-पत्नी बना दिया था। उसने, जो त्वष्टा है, सविता है, और सभी रूपों में विराजमान है । इसके व्रतों को कौन तोड़ेगा ? ओ यम! हम दोनों के इस सम्बन्ध को पृथ्वी जानती है, और आकाश जानता है ।'1
यमी के इस कथन का स्पष्ट आशय है--यौन सम्बन्ध से पूर्व, सभी प्रापस में भाई-बहिन हैं । किन्तु, परम ऐकान्तिक उस रसमय-सम्बन्ध के स्फूर्त होते ही, अन्य सारे सम्बन्ध तिरोहित हो जाते हैं, दब जाते हैं, सिर्फ एक यही सम्बन्ध शेष रह जाता है, जिससे, जीवन की समग्रता रसाप्लावित हो उठती है। क्योंकि, नर-नारी की परिनिष्ठा इसी में है, जीवन का स्रोत यही है ।
१.
गर्भे नु नो जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः । नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथिवी उत द्यौः। ----ऋग्वेद-१०/५/१०
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