________________
श्रावकाचार-संग्रह
पात्रागमविधिद्रव्य देशकालानतिक्रमात् । दानं देयं गृहस्थेन तपश्चर्यं च शक्तितः ॥४८ नियेमेनान्वहं किञ्चिद्यच्छतो वा तपस्यतः । सन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोका निश्रितः ॥४९ धर्मपात्राण्यनुग्राह्याण्यमुत्रस्वार्थसिद्धये । कार्यपात्राणि चात्रैव कीर्त्यै त्वौचित्यमाचरेत् ॥५० समयिक साधकसमयद्योतकनैष्ठिकगणाधिपा न्धिनुयात् । दानादिना यथोत्तर- गुणरागात्सद्गृही नित्यम् ॥५१ स्फुरत्येकोऽपि जैनत्वगुणो यत्र सतां मतः । तत्राप्यजैनैः सत्पात्रेद्यत्यं खद्योतवद्रवौ ॥५२
१४
उल्लङ्घन नहीं करके अपनी शक्तिके अनुसार दान दिया जाना चाहिये और तप भी किया जाना चाहिये । भावार्थ- पाक्षिक श्रावकको आगम, विधि, देश, काल और द्रव्यका लक्ष्य रखते हुए त्रिविध पात्रोंके लिये यथाशक्ति दान देना चाहिये और अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर उपवासादिक तप करना चाहिये ||४८|| प्रतिदिन नियमपूर्वक शास्त्रविहित कुछ दान देनेवाले अथवा तप तपनेवाले जिनभक्त व्यक्ति के दूसरे भव अवश्य इन्द्रादिकपद विशिष्ट होते हैं । भावार्थ - शास्त्रविहित रीति अनुसार दान और तप करने वाले जिनभक्तको भविष्य में महत्त्वपूर्ण इन्द्रादिक पद प्राप्त होते हैं || ४९ || कल्याणके इच्छुक व्यक्तिके द्वारा परलोकमें स्वर्गादिक सुखोंकी प्राप्तिके लिये धर्मपात्र और इस लोक में अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये त्रिवर्गके साधन में सहायक जन उपकृत किये जाने चाहिये । तथा कीर्ति के लिये उचित व्यवहारको करना चाहिये । विशेषार्थ - रत्नत्रयकी सिद्धि में तत्पर व्यक्ति धर्मपात्र कहलाते हैं। तथा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ में सहायक व्यवहारी जन कार्यपात्र कहलाते हैं । परलोकके स्वार्थकी सिद्धिके लिये धर्मपात्रोंका तथा इस लोकके स्वार्थकी सिद्धिके लिये कार्यपात्रोंका अनुग्रह करना चाहिये ॥५०॥ तथा कीर्तिके उत्पादनके लिये सदैव उचित व्यवहार करना चाहिये । पाक्षिक श्रावक दान, सन्मान और स्थान आदिकसे उत्तरोत्तर ariant अधिकता अनुरागसे सदा समयिक, साधक, समयद्योतक, नैष्ठिक और गणाधिपोंको सन्तुष्ट करे । विशेषार्थ - समयक आदिकोंमें उत्तरोत्तर गुणोंकी अधिकता होती है, इसलिये उन उन विशेष गुणोंके अनुसार यथायोग्य दान, सन्मान और सम्भाषण आदिक द्वारा उनको दान देना चाहिये । जैनधर्मका अवलम्बन करनेवाला श्रावक या यति 'समयिक' कहलाता है । ज्योतिषशास्त्र और मंत्रशास्त्र आदि लोकोपकारक शास्त्रोंके ज्ञाताको 'साधक' कहते हैं । वाद और प्रतिष्ठा आदिक द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना करनेवाले विद्वान्को 'समयद्योतक' कहते हैं । मूलगुणों और उत्तरगुणों से प्रशंसनीय तपके अनुष्ठान करनेवाले श्रावक या यतिको 'नैष्ठिक' कहते हैं । धर्माचार्य अथवा गृहस्थाचार्यको 'गणाधिप' करते हैं । मुमुक्षु यति वा श्रावक में यथायोग्य रत्नत्रयकी वृद्धिकी बुद्धिसे दिया हुआ दान पात्रदत्तिमें तथा मुमुक्षु गृहस्थोंके लिये यथायोग्य वात्सल्यबुद्धिसे दिया हुआ दान समदत्ति में गिना जाता है ॥५१॥
1
जिस जैन व्यक्ति में सज्जनोंका प्रिय एक भी जेनीपनका गुण अर्थात् सम्यक्त्वगुण शोभायमान होता है उस व्यक्तिके होनेपर ज्ञान वा तपसे बढ़े चढ़े अजैन सूर्यके रहने पर जुगनूकी तरह मालूम पड़ते हैं । विशेषार्थ - ज्ञान और तप कम भी रहे परन्तु यदि एक भी जैनगुण हो तो भी वह व्यक्ति पात्र है और उसके सामने ज्ञानादिककी अधिकता होनेपर भी जैनत्वगुण-विहीन व्यक्ति सूर्यके सामने जुगनूके समान निष्प्रभ है । संसारसे पार करनेवाले एक जिनेन्द्रदेव ही हैं ऐसी दृढ़ श्रद्धाका नाम जैनगुण है। श्रद्धानके साथ साथ यद्वि ज्ञान और तपका जोड़ रहे तो फिर उस व्यक्ति पात्रत्वका कहना ही क्या है ॥५२॥ अनुगृहीत किया गया जैन एक भी श्रेष्ठ है । दूसरे
I
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org