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१०-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
असाता वेदनीय कर्म नही बन्धता और वह जीव अनादि, अनन्त और चतुर्गति रूप अपार ससार को शीघ्र ही पार कर लेता है।
व्याख्यान अनुप्रेक्षा (सूत्रार्थ का चिन्तन) करने से लाभ होता है, यह बात प्रसिद्ध है । मगर शिष्य को गुरु के मुख से बात सुनने मे आनन्द आता है। इसीलिए भगवान् से यह प्रश्न किया गया है कि अनुप्रेक्षा करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने जो कुछ कहा है, उस पर विस्तार के साथ विचार करने का अभी समय नही है । अतएव सक्षेप मे यहो कहना पर्याप्त होगा कि अनुप्रक्षा करने से जीव को प्रसन्नता होती है और उससे उसे बड़ा लाभ होता है। अनुप्रेक्षा करने से जीव को बहिरग आनन्द भी होता है । किन्तु शास्त्र बहिरग आनन्द को लाभ नही समझता, अन्तरग आनन्द को ही लाभ रूप मानता है । अन्तरग आनन्द ही सच्चा आनन्द है । लोग बाह्य आनन्द को आनन्द मानकर भ्रम मे पड हैं पर शास्त्र ऐसी भूल किस प्रकार कर सकता है ? वस्तुत. आत्मा को तो अन्तरग आनन्द और अन्तरग लाभ की ही आवश्यकता है।
अनुप्रेक्षा करने से बुद्धि मे और विवेक में जागति आती है । आप बुद्धि का बडी समझते है या ससार के पदार्थों को वडा समझते है बचपन मे हमसे पूछा जाता था कि अक्ल बड़ी या भंस ? मैं इस प्रश्न का उत्तर दिया करता था कि भैम वडी नही, अक्ल बडी है । जब दोवारा पूछा जाता कि भंस क्यो बडी नही और अक्ल क्यो बड़ो
नन्द और अन्तता है ?