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बाईसवां बोल
अनुप्रेक्षा
सूत्र की परावर्तना के विषय में इक्कीसवां वोल कहीं जा चुका है । अब अनुप्रेक्षा विषयक प्रश्न उपस्थित होता है। सूत्र की आवृत्ति करने वाले को अनुप्रेक्षा करनी ही चाहिए । सूत्र और अर्थ के विषय मे विचार करके, उसमें से तत्त्व की खोज करना अनुप्रेक्षा है। केवल सूत्र पढ लेने मात्र से कुछ नही होता । कितने ही विद्वान ऐसे देखे या सूने जाते है, जिनका भाषण सुनकर लोग चकित हो जाते हैं । मगर उनका प्राचरण देखा जाये तो आश्चर्य के साथ यही कहना पडता है कि जिनका भाषण इतना चमत्कारपूर्ण है उनका यह आचरण है । आचरण और भाषण मे इस प्रकार अन्तर होने का कारण यही है कि उन्हे असली पद्धति से शिक्षा नहीं दी गई है अथवा उन्होने शिक्षा की वास्तविक पद्धति नही अपनाई है। इसीलिए जैनशास्त्र का कथन है कि ली हुई मूत्रवाचना के विषय मे पूछताछ-परिपृच्छना करो, बार-बार प्रावृत्ति करो और उस पर एकाग्रतापूर्वक चिन्तन करो अर्थात् सूत्रार्थ का मनन करके विचार करो । सूत्रार्थ का मननपूर्वक विचार करने से अत्यन्त आनन्द का अनुभव होता है । इस प्रकार अनुप्रेक्षा में वडा ही आनन्द है । उस मानन्द का वर्णन नही किया जा सकता । उस आनन्द को