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बाईसवा बोल
वही जान सकता है जो उसका अनुभव करता है । जिस अनुप्रेक्षा मे अनिर्वचनीय आनन्द समाया है, उसके विषय में भगवान् से यह प्रश्न किया गया है--
मूलपाठ प्रश्न- अणुप्पेहाए ण भते ! जीव कि जणयइ ?
उत्तर- अणटपेहाए णं पाउयवज्जानो सत्त कम्मपयडीयो घणियबंधणबद्धामो सिढिलबघणबद्धाोप करेइ, दीहकालठिइयाओ हस्सकालठिइयानो पकरेइ, तिवाणुभावाप्रो मदाणुभावाप्रो पकरेइ, बहुप्पएसगाओ अप्पपएसम्गाश्रो पक रेइ, पाउयं च ण कम्मं सिय बंधइ, सिय णो बधइ, असायावेयणिज्ज च णं कम्मं नो भज्जो भुज्जो उवचिणइ प्रणाइयं च णं अणवयग्गं द हम चाउरतसंसारकतारं खिप्पामेव वोइवयइ ।
· शब्दार्थ प्रश्न- भगवन् ! अनुप्रेक्षा ( सूत्रार्थ के चिन्तन ) से जीव को क्या लाभ होता है ? ।
उत्तर-जीव अनुप्रेक्षा रूप स्वाध्याय से आयुकर्म को छोड कर शेष सात कर्मो की गढी बन्धी हुई प्रकृतियो को शिथिल करता है । अगर वह प्रकृतियाँ लम्बे काल की स्थिति वाली हों तो अल्पकालीन स्थिति वाली बनाता है। तीव्र रस वाली हो तो मद रस वाली बनाता है । बहुत प्रदेशो वाली हो तो अल्प प्रदेश वाली बनाता है । आयु कर्म क्दाचित् बन्घता है, कदाचित् नही बन्धता । अर्थात् पहले आयुकर्म न बन्धा हो तो बन्धता है, अन्यथा नही ।