Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{15}
आती, तब तक वह प्रमत्त संज्ञा को प्राप्त रहता है और जिस समय अध्यवसायों में अप्रमत्तता अर्थात स्वरूप में स्थित होने की उत्सुकता पैदा होती है, उस समय वह अप्रमत्त अवस्था का वरण कर लेता है। जो जीव श्रेणी आरोहण नहीं करता उसकी अध्यवसायधारा का उत्कर्ष-अपकर्ष उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि वर्ष तक चलता रहता है। तत्पश्चात् जीव को छठे और सातवें गुणस्थान का परित्याग करना पड़ता है, क्योंकि अधिक से अधिक संयम पालन की अवधि देशोनपूर्वकोटि होती है तथा ये दोनों गणस्थान संयमी जीवों के होते हैं।
छठे गुणस्थानवर्ती सभी साधक सदैव प्रमाद का सेवन करे ही, ऐसा नहीं है। जब वे प्रमाद का सेवन नहीं करते, तब सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर चले जाते हैं, किन्तु क्वचित् देहभाव रूप प्रमाद का सेवन होने से ही इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा गया है। इसप्रकार श्रमण छठे से सातवें तथा सातवें से छठे, दोलायमान स्थिति में रहते हैं। जब देहभाव रहते हैं, तब वे छठे गुणस्थान में रहते है और आत्मभाव या आत्म सजगता में आते हैं, तब सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं।
इस अवस्था में आत्मकल्याण के साथ लोक-कल्याण की भावना और उस अनुसार प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पुद्गल आसक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्व-स्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करती है, लेकिन देहभाव या प्रमाद अवरोध करता है, अतः इस अवस्था में पूर्ण जागृति सम्भव नहीं होती है, इसीलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलनीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह सफल हो जाता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है।
। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान- आत्मसाधना में सजग साधक सप्तम गुणस्थान में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त आत्मस्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर नियन्त्रण करते हैं। इस गुणस्थानवर्ती साधक में पूर्ण जागरूकता रहती है। साधक का ध्यान अपने लक्ष्य के प्रति ही बना रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती है। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनिट से अधिक देहातीत भाव में नहीं रह सकता है, अतः इस गुणस्थान में साधक का निवास अल्पकालीन होता है। इसके बाद भी वह साधक देहातीत भाव में रहता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रस्थान कर जाता है या देहभाव की जागृति होने पर निम्न छठे गुणस्थान में चला जाता है। अप्रमत्तसंयत गणस्थान में साधक समस्त प्रमादस्थानों (जिनकी संख्या ३७,५०० मानी गई है)६० से बचता है। ___भगवतीसूत्र में एक जीव के एक भव में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की समग्र स्थिति देशोनकरोड़ पूर्व की मानी गई है। किन्तु यह काल छठे और सातवें में संयुक्त रूप से समझना चाहिए, अथवा सातवें गुणस्थान से क्षपकश्रेणी से आरोहण कर जो केवली हो जाते हैं, वे भी अप्रमत्तसंयत तो होते हैं, अतः उनकी दृष्टि से समझना चाहिए। सैद्धान्तिक दृष्टि से इस अप्रमत्तसंयत नामक सप्तम गणस्थान का काल अन्तर्महर्त है। इस गणस्थान से आगे की विकास यात्रा दो रूपों में चलती है, अर्थात कर्मरूपी शत्रु सेना पर विजय पाने की यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह जिसमें शत्रु सेना को समाप्त करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह जिसमें शत्रुसेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है, अर्थात् शत्रु सैनिकों को पूर्णतः विनष्ट नहीं किया जाता है, उनके अवरोध को समाप्त कर उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता है, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावलि में क्रमशःक्षपकश्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय में साधक या तो इन दोनों श्रेणियों में से किसी एक का चयन करता है या फिर पुनः छठे गुणस्थान में लौट जाता है। जो साधक उपशमश्रेणी का आरोहण करता है, वह कर्म शत्रु के अवरोध को तितर-बितर कर आगे बढ़ता है, जबकि जो साधक क्षपकश्रेणी से आरोहण करता है, वह कर्म शत्रुओं को पूर्णतः समाप्त करते हुए अपनी विकास यात्रा करता है।
५६ कर्मग्रन्थ, भाग -२ ६० २५ विकथाएँ, २५ कषाय और नोकषाय, ६ मन सहित पांचों इन्द्रियाँ, ५ निद्राएँ, २ राग और द्वेष, इन सब के गुणनफल से ___३७५०० की संख्या बनती है। ६१ "अपमत्तसंजयस्स णं भंते! अप्पमत्त संजमे वट्टमाणस्स सत्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालतो केवच्चिरं होंति?"
"मंडियपुत्ता! एक जीव पडुच्च जहन्नेणं अन्तोमुहूतं उक्कोसेणं पुवकोडी देसूणा! णाणा जीवे पडुच्च सव्वद्धं।"-भगवतीसूत्रम्, सूत्र ३/३/१५४
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