Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{14} करता है। इतना सब होते हुए भी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय के कारण व्रत ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है ।६।
अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय-इन सात प्रकृतियों (दर्शन सप्तक) को आत्मा जब पूर्णतः क्षय करके इस चतुर्थ भूमिका को प्राप्त करती है, तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक होता है तथा ऐसी आत्मा इस गुणस्थान से कभी भी पतित नहीं होती है, वरन् अग्रिम विकास के सोपान पर अग्रसर होकर परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है, लेकिन जब आत्मा दर्शन सप्तक का उपशम करके इस भूमिका को प्राप्त करती है, तो उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। ऐसी परिस्थिति में आत्मा अन्तर्मुहूर्त के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रगटीकरण होने पर यथार्थता से विमुख हो जाती है। इसीप्रकार जब वासनाओं का आंशिक रूप में क्षय और आंशिक रूप में उपशम होने पर जो यथार्थता का बोध होता है, उसमें भी अस्थायित्व होता है, क्योंकि दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर आत्मा को यथार्थ दृष्टि के स्तर से नीचे गिरा देती है। ऐसा सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है।
(५) देशविरति गुणस्थान- यह आध्यात्मिक विकास का पंचम सोपान है। चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्यपथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता है, जबकि इस पंचम देशविरति गुणस्थान में साधक कर्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रयास करता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से जीव पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से देश (अंश) से पाप क्रियाओं से निवृत्त होता है, इस गुणस्थानवर्ती जीव देशविरति श्रावक कहलाते हैं। उनकी इस आंशिक त्यागमयी अवस्था के कारण ही इसे देशविरति गुणस्थान कहते हैं।७
इस गुणस्थान का दूसरा नाम विरताविरत गुणस्थान भी है, क्योंकि इस गुणस्थानवी जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता ही है और बिना प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता है, किन्तु सप्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा से वह विरत नहीं होता है। त्रस जीवों की अपेक्षा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा से अविरत होने से उसे विरताविरत भी कहा जाता है। इस गुणस्थान के अन्य नाम संयतासंयत या देशसंयत भी है।
देशविरति गुणस्थानवी जीव अहिंसा आदि पांच अणुव्रत, दिग्व्रत आदि तीन गुणव्रत और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत-इसप्रकार कुल बारह व्रत का पालन करने वाले होते हैं तथा ग्यारह प्रतिमाओं को धारण कर आत्मा का कल्याण करते हैं। इस पंचम गुणस्थान का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि परिमाण है। प्रथम के चार गुणस्थान चारों गतियों अर्थात् देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों में पाए जाते हैं, किन्तु पाँचवाँ गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान- पाँचवें गुणस्थान की अपेक्षा जीव की अध्यवसाय की धारा में अधिक विशुद्धता आती है, तो वह छठे गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थानवी जीव के प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क का क्षयोपशम हो जाने से वह निर्ग्रन्थ मुनि अवस्था को स्वीकार करता है। षष्ठ गुणस्थानवी जीव में बाह्य परिग्रह से परिपूर्ण निवृत्ति होती है, परन्तु आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति के लिए वह प्रयत्न करता है, तथापि जब तक अध्यवसायों में अप्रमत्तभाव रूप स्वस्वरूप रमण की तीव्रता नहीं
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५५ यहाँ उत्कृष्ट भावों में रमण करनेवाले अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। वैसे तो सम्यग्दृष्टि जीव को
महारम्भी, महाक्रियावादी और नरकायु का बन्धक भी कहा गया है - विशेष विवरण हेतु दृष्टव्य है -सर्द्धर्ममण्डनम्, पृ. ४८-५१. द्वितीयानां कषायानामुदयाद्वतवर्जितम्। सम्यक्त्वं केवलं यत्र, तच्चतुर्थ गुणास्पदम्।।- गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक १६. पच्चक्खाणुदयादो, संजय भावो ण होदि ण व दिंतु। थोव वदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा -३०. जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो। एक्क समयम्हि जीवो, विरदाविरदो निसेक्कमइ।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा -३१.
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