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39.
लवण के समान रस नहीं है, ज्ञान के समान बन्धु नहीं है, धर्म के समान निधि नहीं है और क्रोध के समान वैरी नहीं है।
40.
कुपुत्रों के कारण श्रेष्ठ कुल भी नष्ट हो जाते हैं, दुष्ट चरित्रों के कारण श्रेष्ठ ग्राम-नगर (भी नष्ट (बर्बाद) हो जाते हैं) (तथा) श्रेष्ठ व समृद्ध नराधिपति भी कुमंत्रियों के कारण (नष्ट (असफल) हो जाते हैं)।
41.
सुने हुए को ग्रहण करनेवाले मत हो। जो प्रत्यक्ष न देखा गया हो (उस पर) विश्वास मत करो (तथा) प्रत्यक्ष देखे जाने पर भी उचित और अनुचित का विचार करो।
42.
अपनी (शक्ति) को न जानते हुए जो कठिन कार्य आरम्भ कर देते हैं, उन परमुख की ओर देखे (झुके) हुए (व्यक्तियों) के लिए अर्थात् उन पराश्रित व्यक्तियों के लिए जय-लक्ष्मी (सफलता) किस तरह (प्राप्त) होगी?
43.
कार्य को फुर्ती से करो, प्रारम्भ किए गए कार्य को किसी तरह भी शिथिल मत करो, (क्योंकि) प्रारम्भ किए गये (तथा) फिर शिथिल किए गए कार्य सिद्ध नहीं होते हैं।
44.
सज्जन (जिनका) वैभव नष्ट हुआ (है) अरण्य का ही सहारा लेता है। (अपनी पूर्ति के लिए) (वह) दूसरे से याचना नहीं करता है। (वह) अति-मूल्यवान आत्म-सम्मान रूपी लालरत्न को मरण (काल) में भी नहीं बेचता है।
45.
खल-चरण में झुककर जो त्रिभुवन भी उपार्जित किया जाता है उससे क्या (लाभ है)? सम्मान से जो तृण भी उपार्जित किया जाता है, वह सुख उत्पन्न करता है।
43
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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