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27.
जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है, वह कर्मरूपी ईंधन को जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है।
28.
लोभ से रहित तथा अहंकार, कपट (और) क्रोध से रहित जो जीव निर्मल स्वभाव से युक्त (होता है), वह उत्तम सुख को पाता है।
29.
चूँकि तपरहित ज्ञान (तथा) ज्ञानरहित तप (दोनों ही) असफल (होते हैं), इसलिए (जो व्यक्ति), ज्ञान (और) तप से संयुक्त (होता है) (वह) ही परम शान्ति को पाता है।
30.
जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक (वह) आत्मा को नहीं जानता है, (जिस योगी का) चित्त विषय से उदासीन है, (वह) योगी (ही) आत्मा को जानता है।
31. निन्दा और प्रशंसा में, दुःखों और सुखों में तथा शत्रुओं और मित्रों
में समभाव (रखने) से (ही) चारित्र (होता है)।
32.
धर्म (समभाव) के कारण (ही) वेश होता है, वेश मात्र से धर्म (समभाव) की प्राप्ति नहीं (होती है), (इसलिए) भाव-धर्म को समझो। तुम्हारे लिए वेश से क्या किया जायेगा?
33.
विद्वानों (जागृत व्यक्तियों) द्वारा शील (चरित्र) और ज्ञान में विरोध नहीं बतलाया गया है, किन्तु (यह कहा गया कि) केवल शील (चरित्र) के बिना विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं।
34.
व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, न्याय-प्रशासन (तथा) न्याय-शास्त्रों को और आगमों को जानकर (भी) तुम्हारे लिए शील (चरित्र) ही उत्तम कहा गया (है)।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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