________________
वियलइ
ताव
तुमं
कुहि
अप्पहिय
21.
मोहमयगारवेहिं
य
मुक्का
15
करुणभावसंजुत्ता
सव्वदुरियखंभं
हणंति
चारित्तखग्गेण
22.
तिपयारो
सो
अप्पा
परब्भिंतरबाहिरो
ऊण'
तत्थ
परो
झाइज्जइ
1.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
( वियल) व 3 / 1 अक
अव्यय
(तुम्ह) 1 / 1 स
(कुण) विधि 2 / 1 सक
[ ( अप्प ) - (हिय) 2 / 1 ]
[ ( मोह) - (मय) - (गारव) 3 / 2 ]
Jain Education International
अव्यय
(मुक्क) 1/2 वि
(ज) 1/2 सवि
[(करुण) - (भाव) - (संजुत्त) 1 / 2 वि] (त) 1 / 2 सवि
[ ( सव्व) वि- (दुरिय) - (खंभ) 2 / 1 ]
(हण) व 3 / 2 सक
[ ( चारित) - (खग्ग) 3 / 1]
[(ति) वि - ( पयार ) 1 / 1]
(त) 1/1 सवि
( अप्प ) 1 / 1
[ ( पर) + (अब्भिंतर) + (बाहिरो) [ ( पर) वि - ( अब्धिंतर) वि - (बाहिर)
1/1 fa]
अव्यय
( हेउ) 6/2
अव्यय
(पर) 1 / 1 वि
(झा) व कर्म 3 / 1 सक
क्षीण होती है।
तब तक
तू
कर ले
आत्म-हित
For Private & Personal Use Only
मूर्च्छा, अभिमान और
लालसा से
तथा
मुक्त
जो
करुणाभाव से संयुक्त
वे
पूर्ण पापरूपी खम्भे को
नष्ट कर देते हैं
चारित्ररूपी तलवार से
तीन प्रकार का
वह
आत्मा
परम, आन्तरिक और बहिर
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
निश्चय ही
कारणों से
उस अवस्था में
परम
ध्याया जाता है
207
www.jainelibrary.org