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मज्झरत्तीए
गिद्दारे
समागया
पिहिअं
दारं
दहूण
दारुग्घाडणाए
उच्चसरेण
अक्कोसंति
दारं
उघाडे
त्ति
तया
दारसमीवे
सयणत्थे'
पुरोहिओ
जागरंतो
कहे
मज्झरत्तिं
जाव
कत्थं
तुम्हे
थिआ
अहुणा
न
उघाडिस्सं
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[ ( मज्झ ) - ( रत्ति) 7 / 1 ] [(गिह)-(द्दार) 7/1]
( समागय) भूक 1/2 अनि
(पिहिअ) भूक 2 / 1 अनि
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(दार) 2/1
(दहूण) संकृ अनि
[(दार) + (उग्घाडणाए ) ]
[(दार) - (उग्घाडणा) 4 / 1]
[ (उच्च) वि- (सर) 3 / 1] -
(अक्कोस ) व 3 / 2 सक
(दार) 2/1
( उघाड ) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
[(दार) - (समीव) 7 / 1]
[ ( सयण) - (अत्थे)
7 / 1 क्रिवि अनि प्रयोग ]
(पुरोहिअ) 1/1
(जागर) वकृ 1 / 1
(कह) व 3 / 1 सक
[ ( मज्झ ) - ( रत्ति) 2 / 1 ]
अव्यय
अव्यय
(तुम्ह) 1/2 स
(थिअ) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
अव्यय
( उघाड ) भवि 1 / 1 सक
मध्यरात्रि में
घर के द्वार पर
साथ-साथ आये
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ढका हुआ
द्वार को
देखकर
द्वार खोलने के लिए
उच्च स्वर से
पुकारते हैं (पुकारा)
द्वार
खोलो
वा भावार्थ द्योतक
तब
द्वार के समीप
सोने के प्रयोजन को (रखकर )
पुरोहित (ने) जागते हुए
कहता है (कहा )
मध्यरात्रि को
भी
कहाँ
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत
व्याकरण 3-135)
तुम
ठहरे
अब
नहीं
खोलूँगा
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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